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अपभ्रंश भारती 7
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अन्त में श्रीमाला ने किष्किन्ध कुमार के गले में हार डालकर वरण कर लिया और उसके समीप बैठ गई। उस स्वयंवर में हुई श्रीवृद्धि का वर्णन कवि नवीन उपमानों द्वारा करता हुआ उपस्थित नृप-समूह की क्षीणता का भी दिग्दर्शन कराता है जिससे वर-वधू की छवि और निखर उठती है -
किक्किन्धहो घल्लिय माल ताएँ । णं मेहेसरहों सुलोयणाएँ ॥ आसण्ण परिट्ठिय विमल-देह । णं कणयगिरिहें णव-चन्दलेह ॥ विच्छाय जाय सयल वि णरिन्द । ससि-जोण्हएँ विणु णं महिहरिन्द ॥
णं कु-तवसि परम-गईहें चुक्क। णं पङ्कय-सर रवि-कन्ति-मुक्क ॥ 7.4 - उसके (कुमार किष्किंध के ) गले में माला डालती मानो सुलोचना ने मेघेश्वर के गले में माला डाल दी हो। विमल शरीर वह उसके पास बैठी ऐसी सुशोभित थी मानो कनकगिरि पर नवीन चन्द्र उदय हुआ हो। सभी नृप उसे देखकर ऐसे क्षीण हुए मानो ज्योत्स्नारहित पर्वत हो अथवा सुगति से च्युत कुतपस्वी अथवा रविकांति-रहित कमलों की शोभा। __ कवि द्वारा 'नख-शिख' वर्णन में प्रयुक्त नवीन उद्भावनाएं देखने योग्य बन गयी हैं। रावण की दृष्टि बाला मंदोदरी पर पड़ती है -
दीसइ तेण वि सहसत्ति वाल । णं भसलें अहिणव-कुसुम-माल ॥ दीसन्ति चलण-णेउर रसन्त । णं महुर-राव वन्दिण पढन्त ॥ दीसइ णियम्वु मेहल-समग्गु । णं कामएव-अत्थाण-मग्गु ॥ दीसइ रोमावलि छुडु चडन्ति । णं कसण-वाल-सप्पिणि ललन्ति । दीसन्ति सिहिण उवसोह देन्त । णं उरयलु भिन्दंवि हत्थि-दन्त ॥ दीसइ पप्फुल्लिय-वयण-कमलु । णीसासामोयासत्त-भसलु ॥ दीसइ सुणासु अणुहुअ - सुअन्धु । णं णयण-जलहो किउ सेउ-वन्धु ॥ दीसइ णिडालु सिर-चिहुर-छण्णु । ससि-विम्बु व णव-जलहर-णिमण्णु ॥ 10.3
- सहसा (रावण ने) उस बाला (मंदोदरी) को देखा मानो मधुकर ने नये कुसुम-माला को देखा हो। उसके बजते हुए नूपुर ऐसे लगते थे मानो बन्दीजन शब्दों का पाठ करते हों। मेखलासहित नितम्ब मानो काम का आस्थान मार्ग था। चढ़ती हुई रोमावलि मानो काली बाल नागिन हो। उभरा हुआ उरोज ऐसा दिखाई पड़ता था मानो उरुस्थल पर हाथी का दाँत हो। उसका खिला हुआ मुख-कमल ऐसा दिखाई पड़ता था मानो नि:श्वास के लिए उस पर मधुकर आसक्त हो। सुगन्ध का अनुभव करनेवाली उसकी सुन्दर नाक मानो नेत्रजल हेतु सेतु-बन्ध ही हो। सिर के केशों से छिपा आछन्न ललाट ऐसा लगता था मानो नये बादल में चन्द्र-बिम्ब ही डूबा हो। चन्द्र और सूर्य का सामंजस्य स्वयंभू द्वारा इस प्रकार होता है -
विणि वि दुस्सील-सहावइँ सुरउ स इँ भुञ्जन्ताइँ ।
'मा दिणयरु कहि मि णिएसउ' णाइँ स-सङ्कइँ सुत्ता' ।। 13.12 - (चन्द्र और निशा) दोनों दुष्ट स्वभाव के थे। चूंकि सूर्य न देख सके, इसलिये दोनों सुरति का आनन्द लेकर सो रहे थे।