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________________ 30 अपभ्रंश भारती 7 - (लक्ष्मण ने रावण का सिर) इस तरह तोड़ डाला मानो रावण का अनीतफल हो। पुनः चार सिर निकल आये मानो पृथ्वी पर कमल के फूल खिले हों। फिर अन्य आठ (उसके कटने पर) सिर निकले मानो फणस में फणस निकले हों। - सिर-सदृश ही उसके बाहु-दण्ड ऐसे काट दिये मानो गरुड़ ने सर्प के दो टुकड़े किए हों। अगणित सौ लाख हाथ, हाथों में अगणित तीर मानो वट वृक्ष के तने ही टूट पड़े हों अथवा मानो किसी ने गज-सूंड ही काट दी हों। पांच उँगलियाँ जिनमें सुन्दर नख चमकते थे मानो पाँच फणोंवाला भुजंग हो। तलवारसहित कोई हाथ ऐसा लगता था मानो वृक्ष का पत्ता किसी लता में लगा हो। भ्रमरों के साथ कोई ऐसा सुशोभित था मानो सर्प ने सर्प को पकड़ रखा हो। कुमार लक्ष्मण ने हाथ एवं शिरों से पृथ्वी-मण्डल को पाट दिया हो मानो उसने (लक्ष्मण ने) कोमल नाल और कमल चुन-चुन कर रणरूपी देवता की अर्चना की हो। - कुसुम एवं चन्दन से चर्चित चक्र को रावण ने दिखाया मानो अपने नाश का ही प्रदर्शन किया हो। लक्ष्मण के दुर्वचनों से उत्तेजित होकर रावण ने चक्र उठा लिया और उसे नभ में ऐसा घुमाया मानो समस्त विश्व घूम गया हो। - सैकड़ों अस्त्र ऐसे नष्ट हुए मानो हिम ने सैकड़ों कमलों को जलाया है । ऊँचाई पर घूमता हुआ चंचल चक्र तीन बार घूमा मानो सुमेरु पर्वत के चारों तरफ सूर्य का बिम्ब चक्र लगाता हो। कवि श्रीमाला की शारीरिक सुन्दरता का चित्रण करने में प्राकृतिक एवं अमूर्त उपमानों का उपयोग करता है - सिरिमाल ताम करिणिहे वलग्ग । णं विज्जु महा-घण-कोडि-लग्ग ॥ सयलाहरणालङ्करिय-देह । णं णहे उम्मिल्लिय चन्द-लेह ॥ अग्गिम-गणियारिहें चडिय धाइ । णिसि-पुरउ परिट्ठिय सञ्झ णाइ । दरिसाविउ णर - णिउरुम्वु तीएँ । णं वण-सिरि तरुवर महुयरीएँ ॥ सयल वि णरवर वञ्चन्ति जाइ । अवरागम सम्मादिट्ठि णाइँ ॥ णं सिद्धि कु-मुणिवर परिहरन्ति । दुग्गन्ध रुक्ख णं भमर-पन्ति ॥ 7.3 - श्रीमाला उस हथिनी पर बैठी ऐसी लगती थी मानो महामेघ की गोद में विद्युत। समस्त अलंकारों से युक्त उसकी देह ऐसी जान पड़ती थी मानो नभ में उदित चन्द्रलेखा हो। आगे की हथिनी पर बैठी उसकी दूती मानो रात के पहले संध्या बैठी हो। दूती श्रीमाला को राज-समूह के लिए ऐसी दिखाती थी मानो मधुकरी तरुचरों को वन की शोभा। वह उनको (नृप समूह को) ऐसे छोड़ती जाती थी मानो सिद्धि कुमुनियों को छोड़ देती है अथवा भ्रमरों की कतार दुर्गन्ध से युक्त वृक्षों को।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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