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अपभ्रंश भारती7
उसका मुख नीचा था। प्रलय धूम और केतु सदृश सब दिशाओं में धूल भर गयी। लौटती हुई रेणु मानो रणरूपी बैल का झाग हो। मानो देवताओं ने लक्ष्मण, राम और रावण पर कुसुम-रज की वृष्टि की ही। मानो सुर-वधुओं ने आकाशरूपी पात्र में युद्धरूपी देवी हेतु धूमसमूह दिया हो। तीर-समूह से लगातार क्षीण होता हुआ नभ ही धूल के रूप में गिर रहा था। रण सहज ही प्रकाशित हो उठा। मानो खलविहीन सज्जन का मुख हो।
राम-रावण में तुमुल युद्ध प्रारंभ होता है। घोर युद्ध होने का परिचय कवि-लेखनी से स्पष्ट हो जाता है । इस तुमुल युद्ध के उपमान देखते ही बनते हैं । कवि-कल्पना की उड़ानें कहाँ तक पहुँचती हैं ? कल्पना भी इसकी कल्पना नहीं कर सकती है -
रएँ पणट्ठएँ जाउ रणु घोरु । राहव-रावण-वलहुँ करण-वन्ध-सर-पहर-णिउणहुँ । अन्धार-विवज्जियउ सुरउ णाइँ अणुरत्त-मिहुणहुँ॥ रह रहाहँ णर णरहुँ तुरङ्ग तुरङ्गहुँ । भिडिय मत्त मायङ्ग मत्त-मायङ्गहुँ ॥ को वि सराऊरिय-करु धावइ । रण-वहु-अवरुण्डन्तउ णावइ ॥
कासु इ वाहु-दण्डु वाणग्गें । णिउ भुअङ्गुणं गरुड-विहङ्गे ॥ 74.15 - करणबन्ध और बाणों के प्रहार में निपुण राम और रावण की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ मानो प्रबल अनुरक्त प्रेमी युगल की अंधकाररहित सुरति क्रीड़ा हो। कोई अपने हाथों में बाण लेकर ऐसे दौड़ता था मानो वह रणलक्ष्मी का आलिंगन करना चाहता हो।
द्वन्द्व युद्ध के चित्रण में कवि के उपमान अत्याधिक रोचक बन पड़े हैं - वेण्णि वि जुज्झन्ति सिलीमुहेहिँ । णं गिरि अवरोप्परु सुर-मुहँहिं ॥ 63.4.
- दोनों तीरों से युद्ध करते ऐसे लगते थे मानो नदी-मुख से पर्वत आपस में प्रहार कर रहे हों। __ युद्ध क्षेत्रान्तर्गत व्यूह-रचना का प्रसंग होना स्वाभाविक है। कवि स्वयंभू की व्यूह-रचना पूर्णतः भिन्न है। इस संदर्भ में भी इसकी उपमाएँ अमूर्त एवं व्याकरणिक हैं -
हय-गय-रह-पाइक्क-भयंकरु । णं जमकरणु सुठु अइ-दुद्धरु ॥ सत्त पवर-पायाराहिट्ठिउ । णं अहिणव-समसरणु परिट्ठिउ ॥
विरइउ एम वूहु णिच्छिद्दउ । णं सु-कइन्द-कव्वु घण-सद्दउ ॥ घत्ता - णं हियवउ सीयहे केरउ अचलु अभेउ दसाणणहो ॥ 67.13
- (सुग्रीव ने मायावी रचना कर डाली)। अश्व, गज, रथ, पैदल सैनिकों से भयंकर लगती थी मानो अतीव दुर्धर भयंकर जमकरण हो। सात विशाल परकोटे थे मानो नया समवशरण हो। ऐसा व्यूह बना जिसमें सुराख न हो। (वह) मानो सघन शब्दोंसहित किसी सुकवि का काव्य हो। वह सभी के लिए भीषण, दुर्गम एवं दु-दर्शनीय था (वह) मानो सीता का हृदय हो (साथ ही) रावण द्वारा अडिग और अभेद्य भी।