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________________ 26 अपभ्रंश भारती7 कत्थ इ स-विसाणइँ कुम्भयलइँ । णं रणवहु-उक्खलइँ स-मुसलइँ ॥ कत्थ इ छत्तइँ हयइँ विसालई । णं जम्म-भोयणे दिण्णई थालइँ ॥ कत्थ इ सुहड - सिराई पलोट्टई । णाइँ अ-णालई णव-कन्दोट्टई ॥ कत्थ वि गिद्ध कवन्धे परिट्ठि। णं अहिणव-सिरु सुहडु समुट्ठिउ ॥ घत्ता - कत्थ इ णर-रुण्डेंहिँ कर-कम-तुण्डेहिँ समर-वसुन्धर भीसणिय । वहु खण्ड-पयारेहिं णं सूआरॅहिँ रइय रसोइ जमहो तणिय ॥ 17.13 __ - कहीं पर सूंड के साथ कुम्भस्थल पड़े थे मानो युद्धरूपी स्त्री के ऊखल एवं मूसल हों। कहीं कटे विशाल छत्र पड़े थे मानो यमराज के भोजन के लिए थाल हों। कहीं योद्धाओं के सिर लोट-पोट हो रहे थे मानो नवीन कुन्द पुष्प हों। कहीं धड़ों पर बैठे गिद्ध ऐसे लगते मानो उनके नये सिर ही निकले हों। कहीं नर-मुण्ड और पड़े हुए हाथ-पैर के समूह से पृथ्वी ऐसी भयंकर लगती थी मानो यमराज हेतु रसोइयों ने विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाये हों। कटे हुए सिर जो रक्त से लिपटे हुए पड़े हैं कवि उसके लिए इस प्रकार उत्प्रेक्षा के माध्यम से व्यक्त करता है - भडु को वि पडिच्छिरु णिव्वट्टिय-सिरु सोणिय-धारुच्छलिय-तणु । लक्खिज्जइ दारुणु सिन्दूरारुणु फग्गुणे णाइँ सहसकिरणु ॥ 17.12 - रक्त से लिपटाहुआ धड़ और सिर ऐसा मालूम होता था मानो सिन्दूर की भाँति लाल फाल्गुन का दारुण तरुण सूर्य हो। अपार सेनाएँ युद्ध-प्रांगण में प्रयाण करती हैं। राम की असंख्य सेना, राम और रावण की सेनाओं के भिड़ने पर उड़तीहुई धूल की उत्प्रेक्षा देखते ही बनती है - राम-सेण्णु रण-रहसिउ कहि मि ण माइउ । जगु गिलेवि णं पर-वलु गिलहुं पधाइउ ॥ 74.11 - राम की सेना की प्रसन्नता नहीं समा पा रही थी, वह ऐसी प्रतीत होती थी मानो विश्व को निगलकर शत्रु-सेना को निगलने दौड़ी हो। गय-पय-भर-भारियए धरए णाइँ णीसासु मेल्लिउ । अहव वि मुच्छावियहे अन्धयारु जीउ व्व मेल्लिउ ॥ उच्छलिउ मन्दु मयरन्दु णाइँ। रय-णिहेण व णहहो धरित्ति जाइ ॥ घत्ता - पसरन्तुट्ठन्तु महन्तु रउ लक्खिज्जइ कविलउ कव्वुरउ । महि - मडउ गिलन्तहो स-रहसहो णं केस-भारु रण-रक्खसहो ॥ 74.12 - अश्वों के खुरों से धूल ऐसी उड़ी मानो गजों के पैर के भार से पृथ्वी निःश्वास छोड़ती हो अथवा मूछित पृथ्वी आँच-सदृश अंधकार छोड़ती हो। अथवा धूल के बहाने पृथ्वी आकाश की ओर जाती हो। पीली और चितकबरी धूल फैलती और उठती हुई ऐसी लगती थी मानो पृथ्वी के शव को निगलते हुए रणरूपी राक्षस का केश-भार हो।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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