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________________ अपभ्रंश भारती 7 हो । मानो नगर की ध्वजा कह रही हो कि हे लक्ष्मण ! आओ और शीघ्र जितपद्मा को लो ( ग्रहण करो ) । - हनुमान ने नगर में प्रवेश किया। उस नगर की विद्यमान वस्तुओं का वर्णन स्वयंभू ने स्थूल एवं सूक्ष्म अथवा मूर्त एवं अमूर्त उपमेय तथा उपमान के माध्यम से इस प्रकार किया है कत्थइ कल्लूरियहुँ कणिक्कउ । णं सिज्झन्ति तियउ पिय-मुक्कउ ॥ अइ-वण्णुज्जलाउ णउ मिट्ठउ । णं वर-वेसउ वाहिर-मिट्ठउ ॥ कत्थइ पुणु तम्वोलिय- सन्थउ । णं मुणिवर-मईउ मज्झत्थउ || अहवइ सुर- महिलउ वहुलत्थउ । जण मुहमुज्जालेवि समत्थउ ॥ कत्थइ पडियइँ पासा - जूअइँ । णट्टहरइँ पेक्खणइँ व हूअइँ | कत्थइ वर - मालाहर सन्थउं । णं वायरण कहउ सुत्तत्थउ ॥ कत्थइ उम्मवन्ति णर-माणइँ । ण जम- दूआ आउ-पेमाणइँ ॥ कत्थइ कामिणीउ मय-मत्तउ । णं रिह वहुलउ अधिय-कडत्तउ ॥ घत्ता - - रामहो हरिहे कइद्धयहो हणुवन्तु कयंजलि - हत्थउ ॥ काहीँ जहाँ सणिच्छरों णं मिलिउ कयन्तु चउत्थउ ॥ 45.12 25 कहीं पर भोजन पकानेवाली स्त्रियों के 'कनकन' शब्द ऐसे लगते थे मानो प्रिय से छूटी हुई स्त्री कुनकुना रही हो। कहीं पर नवीन श्वेत मिठाई थी मानो वेश्या के समान बाहर से मीठी हो । कहीं पर पानवालों की गली ऐसी लगती थी मानो श्रेष्ठ मुनियों के बीच की मति हो । अथवा अनेक अर्थोंवाली देव महिला जिसमें लोगों के मुख को उज्वल करने की सामर्थ्य थी। कहीं जु-पासे फेंके जा रहे थे तो कहीं कूटद्यूत और नृत्य । कहीं मालाकरों की गली थी जो व्याकरण और कथा की तरह सुसज्जित थी। कहीं मनुष्यों के मान ऐसे लगते मानो आयु निर्धारित (प्रमाणित) करनेवाले यमदूत हों। कहीं मदयुक्त कामिनियाँ ऐसी लगती थीं मानो रेखबहुल (झुर्रियां ) क्षीणता हो । हाथ जोड़े हनुमान राम, लक्ष्मण और सुग्रीव के बीच में ऐसे लगते थे मानो काल, यम और शनि में चौथा कृतान्त हो । पउमचरिउ में प्रयुक्त उपमान ज्ञान-वृद्धि में उपयोगी हैं जिससे शब्द भंडार में अभिवृद्धि होती है। ऐसे नवीन उपमान से प्रयुक्त शब्दों का ज्ञान करानेवाले के प्रति नत होना स्वाभाविक है । स्वयंभू ने धर्म एवं नीति में दृढ़ विश्वासी विभीषण के मुख से उपमेय और उपमान को अमूर्त बनाकर उसे पुनः उक्ति-दोष से वंचित करा दिया है और कथ्य की रोचकता को बनाये रखा है। अहिहु वलिउ दसाणण रायहो । णं गुण- णिवहु दोस-संङ्घायहो ॥ 57.2 (विभीषण) दशानन के सम्मुख ऐसे मुड़े मानो दोष-समूह के सामने गुण-समूह हो । युद्ध-वर्णन में कवि की शिल्पकला निखरती चलती है। रणप्रांगण में पड़े हुए शवों की स्थिति का चित्र अवलोकनीय है -
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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