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________________ अपभ्रंश भारती 7 23 - एक ओर राम और हनुमान बैठे थे मानो मनमोहन बसन्त और काम हो। जामवन्त और सुग्रीव दोनों भी सुशोभित थे मानो इन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों ही बैठे हों। परममित्र लक्ष्मण और विराधित मानो स्थूल स्थिरचित्तवाले नमि और विनमि हों। योद्धा अंग और अंगद सुशोभित थे मानो चन्द और सूर्य अवतरित हों। नृप नल और नील बैठे थे मानो एक आसन पर यम और वैश्रवण बैठे हों। युद्ध में समर्थ, गय, गवय और गवाक्ष भी ऐसे लगते थे मानो गिरिवर में रहनेवाले सिंह हों। ___हस्त और प्रहस्त की प्रबल शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए कवि नवीन से नवीन उपमानों की कल्पना करता हुआ नहीं थकता। कवि का विचार सदैव यही रहता है कि वह शक्तिशाली जीव या निर्जीव कौन है जिससे हस्त और प्रहस्त की समता की जाय - __णं पलएँ समुट्ठिय चन्द-सूर । णं राहु-केउ अच्चन्त-कूर । णं पलए-हआसण पवण-चण्ड। णं मत्त महग्गय गिल्ल-गण्ड । णं सीह समुद्भूसिय-सरीर । णं खय-जलणिहि गम्भीर धीर । 61.9 . - शक्ति का सहारा देकर हस्त और प्रहस्त इस तरह खड़े हुए मानो प्रलय में चन्द्र और सूर्य उदीयमान हों। अथवा क्रूर राहु और केतु अथवा पवन से आहत प्रलय की आग अथवा मद से आर्द्र महागज अथवा प्रसन्नचित्त शरीरवाला सिंह अथवा गंभीर एवं विशाल प्रलयकालीन समुद्र हो। __ लेखनी से लिपिबद्ध करते हुए शक्ति एवं पराक्रम का उदाहरण निरन्तर बनाये रखने की कवि की अभिलाषा निरन्तर बलवती होती दिखाई पड़ती है। हस्त और प्रहस्त के मरणोपरान्त सिर पर हाथ रखकर बैठे रावण की स्थिति का चित्रण अवलोकनीय है - णं मत्त-महागउ गय - विसाणु । णं वासरे तेय-विहीणु भाणु । णं णी-ससि-सूरउ गयण - मग्गु । णं इन्द-पडिन्द-विमुक्कु सग्गु ॥ णं मुणिवरु इह-पर-लोय-चुक्कु। णं कुकइ-कव्वु लक्खण-विमुक्कु ॥ 61.14 - वह (रावण) ऐसा लगता था मानो दाँतहीन मतवाला गज हो, मानो दिन में तेजहीन सूर्य हो, मानो सूर्य और चन्द्ररहित आकाश हो अथवा मानो इन्द्र और प्रतीन्द्ररहित स्वर्ग हो। मानो मुनि इस लोक और परलोक से चूक गये हों, मानो कुकवि का काव्य लक्षणरहित हो। रावण ने जब अपना धनुष उठाया तो उस धनुष से ऐसा टंकार हुआ मानो प्रलय महामेघ गरज उठा हो। धनुष का घोर टंकार अप्रत्यक्षरूप से रावण की शक्ति का परिचय देता है - णं गज्जिउ पलय-महाघणेण । णं घोरिउ घोरु जमाणणेण ॥ अप्पाणु घित्तु णं णहयलेण । णं विरसिउ विरसु रसायलेण ॥ णं महियलें णिवडिउ वज्ज-घाउ । वलें रामहो कम्पु महन्तु जाउ ॥ 75.8 - (रावण के धनुष चढ़ाने पर) ऐसा लगा मानो प्रलय महामेघ गरजा हो, मानो यममुख ने घोर गर्जन किया हो, मानो आकाशतल स्वयं गिरा हो, मानो रसातल ने बिना रस के शब्द किया हो, मानो पृथ्वीतल पर वज्र गिरा हो जिससे राम की सेना प्रकम्पित हो गई।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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