________________
22
अपभ्रंश भारती7
प्रकृति वर्णन के प्रसंगान्तर्गत वटवृक्ष का नवीनीकरण करता हुआ कवि नवीन चेतना के रूप में विविध कल्पनाओं की संभावनाएँ सुन्दर एवं रोचक शैली में प्रकट करता है -
कड्ढिउ वर-पायवु थरहरन्तु । णं वइरि रसायले पइसरन्तु ॥ णं णदण-वणहो रसन्तु जीउ । णं धणिहे वाहा-दण्डु वीउ ॥
णं दहवयणहो अहिमाण-खम्भु । णं पुहइ-पसूयणे पवर-गब्भु ॥ घत्ता - सो सोहइ णग्गोह-तरु मारुय-सुय-भुयलट्ठिहिं लइयउ।।
णावइ गंगहे जउणहे वि मज्झे पयागु परिट्ठिउ तइयउ ॥ 51.3 - थर्राते हुए वटवृक्ष को हनुमान ने ऐसा खींचा मानो पाताल में कोई शत्रु ही जा रहा हो। मानो वह नंदन वन की मुखरजिह्व हो। अथवा मानो धरती का दूसरा बाहुदण्ड। अथवा मानो रावण का अभिमान-स्तम्भ।अथवा मानो प्रसूतवती धरती का विशाल गर्भ हो। हनुमान द्वारा पकड़े जाने पर वह वटवृक्ष ऐसा लगता था मानो गंगा और यमुना नदी के बीच में तीसरा प्रयाग हो।
इस महाकाव्य में वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार का अनुपम एवं अनूठा उदाहरण दशानन के पौरुष में तब दिखाई पड़ता है जब कैलाश पर्वत को उठा लेता है -
कत्थइ गय णिग्गय उद्ध - सुण्ड । णं धरएँ पसारिय वाहु-दण्ड । कत्थइ सुअ - पन्तिउ उठ्ठियाउ । णं तुट्टउ मरगय - कण्ठियाउ । कत्थइ भमरोलिउ धावडाउ । उड्डन्ति व कइलासहो जडाउ । कत्थइ वणयर णिग्गय गुहेहिं । णं वमइ महागिरि वहु-मुहेहिँ । उच्च्छलिउ कहि मि जलु धवल-धारु। णं तुट्टेवि गउ गिरिवरहो हारु ।। कत्थइ उठ्ठियइँ वलाय-सयइँ । णं तुट्टेवि गिरि-अट्ठियइँ गयई। कत्थइ उच्च्छलियइँ विदुमाइँ । णं रुहिर-फुलिङ्गइँ अहिणवाइँ। 13.5
- रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाते ही भग्न विषधरों की विष-ज्वालाएँ निकलने लगी, चट्टानें चूर-चूर होने लगीं, खलबली मच गई। कहीं पर गज सैंड उठाए हुए निकल रहे थे मानो धरती ने अपना हाथ फैला दिया हो। कहीं उड़ते हुए तोतों की पंक्ति सदृश मरकत के कन्ठे टूटे हों। भ्रमरों की पंक्तियां ऐसी उड़ती थीं मानो कैलाश पर्वत की जटाएं उड़ती हों। कहीं पर गुफाओं से बन्दर निकले मानो महागिरि बहुत मुखों से वमन करता हो। कहीं जल की धवल धाराएं ऐसी उछलती मानो गिरिवर के हार टूटे हों। सैकड़ों बगुले उड़े मानो पर्वत की हड्डियां चरमराई हों। कहीं मूंगे उछल रहे थे मानो नवीन रुधिरकण हों।
शौर्य एवं पराक्रम का दिग्दर्शन कराने की अनूठी कला तो स्वयंभू में थी ही, दूसरे उसके द्वारा उद्धृत उत्प्रेक्षाओं में निहित है -
एक्कहिँ णिविठ्ठ हणुवन्त-राम । मण-मोहण णाइँ वसन्त-काम ॥ जम्वव-सुग्गीव सहन्ति ते वि । णं इन्द-पडिन्द वइट्ठ वे वि ॥ सोमित्ति-विराहिय परममित्त। णमि-विणमि णाई थिर-थोर-चित्त ॥ अङ्गङ्गय सुहड सहन्ति वे वि । णं चन्द सूर-थिय अवयरेवि ॥ णल-णील-णरिन्द णिविट्ठ केम । एक्कासणे जम - वइसवण जेम ॥ गय-गवय-गवक्ख वि रण-समत्थ । णं वर-पञ्चाणण गिरिवरस्थ ॥ 45.13