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________________ अपभ्रंश भारती 7 21 सूर-भएण णाई रणु मेल्लेवि। पइसइ णयरु कवाडई पेल्लेवि । दीवा पज्जलन्ति जे सयणेहिँ। णं णिसि वलेवि णिहालइ णयणेहिँ ॥ उट्ठिउ रवि अरविन्दाणन्दउ। णं महि कामिणि-केरउ-अन्दउ ॥ णं सञ्झाए तिलउ दरिसाविउ। णं सुकइहे जस-पुजु पहाविउ ॥ णं मम्भीस देन्तु वल-पत्तिहे। पच्छलें णाई पधाइउ रत्तिहे ॥ णं जग-भवणहाँ वोहिउ दीवउ। णा. पुणु वि पुणु सो ज्जे पडीवउ ॥ घत्ता - तिहुअण-रक्खसहो दारेवि दिसि-वहु-मुह-कन्दरु । उवरे पईसरेवि णं सीय गवेसइ दिणयरु ॥ 41.17 - सूर्य के भय से मानो रात्रि रण को छोड़कर किवाड़ों को धक्का देती हुई नगर में प्रवेश करती है। शयन-स्थान पर दीप जलते हैं मानो रात्रि उसके मिस अपने नेत्रों को घुमाकर देखती है। कमलों को आनंदित करनेवाला सूर्य उदय हुआ मानो पृथ्वीरूपी कामिनी का दर्पण हो अथवा संध्या का तिलक हो अथवा कवि का यशपुन्ज चमकता हो अथवा राम की पत्नी सीता को शक्ति देकर रात्रि के पीछे दौड़ता हो अथवा संसाररूपी महल का दीपक जला हो अथवा बार-बार वही लौटता हो। .. उद्विग्न स्थिति में बैठे हुए राम से उनके सामन्त कल के होनेवाले युद्ध की बात करते हैं। तभी सूर्योदय हुआ। इस प्रभात काल में सूर्य की स्थिति की नवीन उद्भावनाएँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार के द्वारा प्रस्तुत करके कवि ने काव्य की उत्कृष्टता एवं रोचकता में योग दिया है - ताम्व विहाणु भाणु णहे उग्गउ । रयणिहे तणउ गब्भु णं पिग्गउ । घत्ता - आहिण्डेंवि जगु सयरायरु सिग्घ-गइ। सम्पाइउ णाइँ स इं भु व णाहिवइ ॥ 63.12 - (इसी बीच) प्रात:काल का सूर्य आकाश में उदित हुआ तो ऐसा लगा मानो निशाचरियों का गर्भ निकल पड़ा हो। मानो द्रुतगामी सूर्य ने संसार की परिक्रमा करते हुए अपने हाथों से अपना अधिकार पर्ण किया हो। संध्या एवं रात्रि का सुन्दर तथा असुन्दर रूप देना कवि की कूचीरूपी लेखनी तथा रस, छन्द, अलंकार आदि रोशनाई की गुणवत्ता पर निर्भर है। कुशल चितेरारूपी स्वयंभू ने वीभत्स अलंकार के माध्यम से उसकी भयंकरता प्रकट की है - जाय संझ आरत्त पदीसिय। णं गय-घड सिन्दूर-विहूसिय ॥ . सूर-मंस-रुहिरालि-चच्चिय। णिसियरि व्व आणन्दु पणच्चिय ॥ गलिय संझ पुणु रयणि पराइय। जगु गिलेइ णं सुत्तु महाइय ॥ 23.9 - सूर्य के अस्त होने पर लालिमा से युक्त संध्या ऐसी लगी मानो सिन्दूर से सुसज्जित गजघटा हो।अथवा वीर के रक्त में लिपटी हुई निशाचरी प्रसन्नता से नृत्य कर रही हो। संध्या की समाप्ति एवं रात्रि के आगमन पर ऐसा लगा मानो सोते हुए महाविश्व को निगल लिया हो।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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