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________________ अपभ्रंश भारती 7 इस कृति में कवि ने वर्ण, अलंकार, छन्द, रस, दिवा-रात्रि, संध्या-प्रभात, नगर, ऋतु, ज्योतिष, पराक्रम एवं शौर्य - युद्ध से संबंधित विभिन्न प्रकार के कारक तथा जीवनोपयोगी समग्र वस्तुओं के कारकों की महत्ता उत्प्रेक्षा अलंकार के द्वारा दिखाते हुए काव्य- कलेवर एवं सुन्दरता में अभिवृद्धि कर दी है। वह किसी एक उपमान से संतुष्टि नहीं पाता है क्योंकि उसके ज्ञान की पिपासा अनन्त है । इसलिये वह उपमानों की लड़ी पर लड़ी पिरोता चलता है। कभी भी थकता हुआ प्रतीत नहीं होता है । प्रस्तुत काव्य में आलोच्य, अलंकार का वाचक णावई, णाई एवं णं है 1 पउमचरिउकार ने ग्रीष्म और पावस ऋतु का मानवीकरण निम्न प्रकार से किया है धणु अप्फालिउ पाउसेण तडि टंकार-फार दरिसन्तें । चोऍवि जलहर-हत्थि-हड णीर-सरासणि मुक्क तुरन्तें ॥' 28.2 20 - पावस राजा ने बिजली का टंकार करते हुए धनुष चढ़ा लिया साथ ही मेघ-घटा को प्रेरित करते हुए अविलम्ब जलरूपी बाण छोड़ा। ग्रीष्म ऋतु के अन्तिम दिनों में आकाश में मेघ - जाल फैलने लगता है। ऐसा लगता है मानो पावसराज हाथ इन्द्रधनुष लेकर मेघरूपी गज पर बैठकर ग्रीष्मरूपी नराधिप पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो रहे हों। फिर जल के बाणों से आहत होकर ग्रीष्मराज युद्ध में धराशायी हुआ जिसके पठन से सज्जनों की तरह मेंढक टर्र-टर्र (रोने) करने लगे और दुर्जन की भांति मयूर नाचने लगे दादुर रडेवि लग्ग णं सज्जण । णं णच्चन्ति मोर खल दुज्जण ॥ णं पूरन्ति सरिउ अक्कन्दें । णं कइ किलकिलन्ति आणन्दें ॥ णं परहुय विमुक्क उग्घोसें । णं वरहिण लवन्ति परिओसें ॥ णं सरवर वहु-अंसु - जलोल्लिय । णं गिरिवर हरिसें गञ्जोल्लिय ॥ णं उण्हविअ दवग्गि विओएं। णं णच्चिय महि विविह - विणोएं ॥ णं अत्थमिउ दिवायरु दुक्खें । णं पइसरइ रयणि सइँ सुक्खें ॥ रत्तपत्त तरु पवणाकम्पिय । केण वि वहिउ गिम्भु णं जम्पिय ॥ 28.3 मेंढक मानो सज्जनों की तरह टर्र-टर्र (रोने) करने लगे। मानो मोर दुष्ट दुर्जन की भाँति नृत्य करने लगे। मानो आनंद से सरिता भर गई। मानो कवि आनन्द से किलकिलाने लगे। मानो कोयल उद्घोष से मुक्त हो गई। मानो मयूर परितोष से बोलने लगे। मानो तालाब विपुल अश्रुओं से जलमग्न हो गया। मानो वियोग से दावाग्नि शांत हुआ। मानो पर्वत प्रसन्नता से पुलकित हो गया। मानो पृथ्वी विविध विनोद से नृत्य कर उठी। मानो दिवाकर दुःख से अस्त हो गया । मानो रात्रि सुख से फैल गयी । वृक्ष के पत्ते रक्त- युक्त हो गये एवं हवा से काँप उठे । कह रहे थे कि मानो किसी ने ग्रीष्म का वध कर दिया है। रावण और सीता के कटु वार्तालाप - पश्चात् सूर्य अस्त हो गया। रात्रि की भयंकरता समाप्ति की स्थिति में है। मंत्रों से पीड़ित दर्प को चूर-चूर एवं सम्मान को चोट पहुँचानेवाली निशाचरीरूपी रात्रि नष्ट हुई, मानो शूरवीर के चोट से गजघटा -
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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