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________________ अपभ्रंश भारती 7 अक्टूबर 1995 19 पउमचरिउ के कुछ विशिष्ट उत्प्रेक्षा अलंकार - डॉ. रामबरन पाठक अपभ्रंश साहित्य में महाकाव्य का प्रथम रचयिता महाकवि स्वयंभू की विलक्षणता से कोई भी साहित्यविद् अपरिचित नहीं होगा। जीवन के समस्त क्षेत्रों में गहन अनुभव रखनेवाला वह व्यक्ति क्यों न साहित्य क्षेत्र में अपना अद्वितीय स्थान बना पाता! उसकी सभी अनमोल रचनाएँ साहित्य संसृति की कोष-मंजूषा हैं। अतः सभी परवर्ती कवि जाने-अनजाने उस कवि के ऋणी हैं। पउमचरिउ की कलात्मक सौन्दर्य पर दृष्टि पड़ते ही कौन ऐसा अध्येता होगा जिसका हृदय बाग-बाग होकर मन-मयूर को नृत्य करने के लिए बाध्य नहीं करेगा। प्रमाण-स्वरूप इस काव्य में कतिपय सुलभ उत्प्रेक्षा अलंकारों पर दृष्टि डालना आवश्यक है। कवि की तीव्र एवं तीक्ष्ण बुद्धिरूपी लेखनी ने प्रस्तुत महाकाव्य में मूर्त-अमूर्त, प्रस्तुत-अप्रस्तुत, रस, गुण, रीति, शब्दशक्ति, छन्द, शेष अन्य अलंकार आदि को उत्प्रेक्षा अलंकार का वाहक बनाकर काव्य के शिल्पविधान में एक नया मोड़ दे दिया है। स्वर और व्यंजन का समावेश करते हुए वर्ण, पद, शब्द, वाक्यादि का अवलम्ब लेकर कवि की लेखनी चलती रही है। आलोच्य काव्य में परम्परागत एवं नवीन शिल्प संसाधनों का उपयोग सुलभ है। • लेखक से यह लेख प्राप्त होने के पश्चात् एक दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया।
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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