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________________ अपभ्रंश भारती 7 केशवदास की 'रामचन्द्रिका' अपभ्रंश काव्य 'जिनदत्तचरित' से प्रभावित है और सूरदास के गेय पदों में 'गाथा सप्तशती' की झलक मिलती है। उनका एकाध दोहा हेमचन्द्र के दोहों से हू-ब-हू मिलता है, जैसे - बाँह बिछोडवि जाहि तुहुँ, हउं तेवइं को दोसु । हिअअट्ठिअ जइ नीसरहि, जाणउं मुंज सरोसु ॥ - हेमचन्द्र बाँह छुड़ाए जात हो, निबल जानि के मोहि । हिरदय से जब जाहु तों, सबल बदौंगो तोहि ॥ - सूर मीरा की वाणी अपभ्रंश लोकगीत परम्परा के अत्यन्त निकट है। महाकवि विद्यापति के अलंकार ही नहीं, नायक-नायिका भेद तथा अन्य शैलीगत विशेषताएँ भी अपभ्रंश काव्य से प्रभावित हैं। उनकी 'कीर्तिलता' में अपभ्रंश चरितकाव्यों के अनेक लक्षण सहज ही देखे जा सकते हैं। इसतरह, महाकवि चन्दवरदाई से लेकर मीरा तक अधिकांश हिन्दी कवि अपभ्रंश काव्य से भलीभाँति परिचित और प्रभावित हैं। ' मध्यकालीन हिन्दी कविता और रीतिकालीन श्रृंगारी काव्य भी अपभ्रंश के श्रृंगार काव्य से अत्यधिक प्रभावित हैं। बिहारी, देव, मतिराम आदि अनेक रीतिकालीन कवियों की शृंगारिक भावनाओं तथा तत्कालीन लक्षण ग्रंथों पर 'गाथा सप्तशती' का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। बिहारी सतसई में 'गाथा सप्तशती' से अनेक स्थलों पर भावसाम्य है। बिहारी का सुप्रसिद्ध निम्न दोहा गाथा सप्तशती के मूल भाव पर ही रचित है - नहिं पराग, नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल । __ अली कली ही सौं बिंध्यौ आगे कौन हवाल ॥ संक्षेप में, हिन्दी काव्य का विषय ही नहीं उसकी रचनाशैली और छन्दों पर भी अपभ्रंश साहित्य का स्पष्ट प्रभाव है। अलंकारों के लिए भी हिन्दी अपभ्रंश की ऋणी है । ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग भी हिन्दी में अपभ्रंश से आया। अपभ्रंश की अनेक लोकोक्तियों, मुहावरों और कथानक रूढ़ियों को भी हिन्दी ने सहर्ष अपना लिया है। इसतरह, भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी साहित्य अपभ्रंश साहित्य से प्रभावित है। यही कारण है कि अपभ्रंश की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है और अध्येता आज भी अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन की अनिवार्यता को शिद्दत के साथ महसूस करते हैं। अपभ्रंश भाषा साहित्य और हिन्दी अनुसन्धान - अपभ्रंश के विशाल और विलुप्त साहित्य को प्रकाश में लाने का प्रथम श्रेय जर्मनी के सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री रिचर्ड पिशेल और डॉ. हर्मन याकोबी को प्राप्त है। इन दोनों विद्वानों के अपभ्रंश साहित्य सम्बन्धी अध्ययन, अनुसंधान और प्रकाशन का परिणाम इतना उत्साहवर्द्धक और विस्मयकारी सिद्ध हुआ कि हिन्दी, गुजराती, मराठी और बंगला में अपभ्रंश भाषा और साहित्य सम्बन्धी अध्ययन, अनुसंधान, सम्पादन और प्रकाशन का पथ अनायास, रातोरात, प्रशस्त हो उठा और अपभ्रंश की शताधिक रचनाएँ विनष्ट और विलुप्त होने से बचा ली गयीं। इनके अतिरिक्त जार्ज ग्रियर्सन, भाण्डारकर, मुनि जिनविजय,
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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