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________________ अपभ्रंश भारती 7 13 बाबूराम छटा से पूर्ण हैं । यही मुक्तक धारा रीतिकाल तक चली आती है और आध्यात्मिक स्वर के मन्द हो जाने के कारण केवल शृंगारपूर्ण रह जाती है। - प्रबन्धात्मक कृतियों के दूसरे वर्ग में उपलब्ध ग्रंथों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम है। 'सन्देशरासक' 223 पद्यों में समाप्त एक सन्देशकाव्य है। इसमें विजयपुर की एक वियोगिनी नायिका एक पथिक द्वारा अपने प्रियतम तक अपना सन्देश भेजती है। इसमें ऋतु-वर्णन और नायिका के भावों का अत्यन्त आकर्षक चित्रण देखने को मिलता है। संवत् 1465 के पूर्व रचित अब्दुल रहमान की इस रचना की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है। विद्यापति की 'कीर्तिलता' एक ऐतिहासिक चरितकाव्य है जिसमें कीर्तिसिंह के वंश, विजय, वीरता और अभिषेक आदि का चित्रण है। इसमें काव्य वैभव का अभाव है और भाषा मैथिली से प्रभावित है। विद्यापति का समय चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी है। इनकी दूसरी रचना 'कीर्ति पताका' में भी अपभ्रंश के कतिपय पद्य हैं। हिन्दी साहित्य पर अपभ्रंश का प्रभाव - हिन्दी पर अपभ्रंश के प्रभाव को रेखांकित करनेवालों में पण्डित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, डॉ. हीरालाल जैन, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. हरिवंश कोछड़, लालचन्द गाँधी, हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, चन्द्रमोहन घोष, हरप्रसाद शास्त्री, जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, सक्सेना, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, सुकुमार सेन, रामसिंह तोमर, पी.डी. गुणे, डॉ. शहीदुल्ला, सी.डी. दलाल, जी.वी. तगारे, डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव, कस्तूरचंद कासलीवाल एवं डॉ. कमलचन्द सोगाणी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। सबसे पहले नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भाग-2 में लिखते हुए गुलेरीजी ने कहा कि अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी ही कहना चाहिए - "विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और फिर वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गयी।" इसी तरह स्वयम्भू तथा पुष्पदन्त की रचनाओं को अपने ग्रंथ 'हिन्दी काव्यधारा' में संकलित करते हुए महापंडित राहुलजी ने कहा कि यह अपभ्रंश पुरानी हिन्दी ही है और स्वयम्भू इस हिन्दी का सर्वोत्तम कवि। शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंश से विकसित होने के कारण हिन्दी साहित्य का अपभ्रंश से प्रभावित होना अत्यन्त स्वाभाविक है। विकासोन्मुख अपभ्रंश के प्रभाव से हिन्दी साहित्य के विभिन्न अंग-कथा साहित्य, काव्य, छन्द और काव्यरूप सभी प्रभावित और पल्लवित हुए तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हिन्दी के आदि महाकाव्य 'पृथ्वीराज रासो' पर अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। चरित काव्य होने के साथ वह रासक काव्य भी है, अतः उस पर अपभ्रंश के चरित काव्यों एवं रासक काव्यों का प्रभाव पड़ा है। निजन्धरी कथाओं का प्रयोग, कथानक रूढ़ियों, संयोगवियोग के मार्मिक चित्र, ऋतु वर्णन एवं उनका उद्दीपनकारी प्रभाव ये सभी बातें अपभ्रंश काव्यों की तरह हमें 'पृथ्वीराज रासो' में भी मिलती हैं। 'संदेशरासक' और 'पृथ्वीराज रासो' दोनों का प्रारम्भ एक जैसा है और दोनों की प्रारम्भिक आर्याएँ मिलती-जुलती हैं। अपभ्रंश काव्यों की
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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