________________
12
अपभ्रंश भारती7
पद हैं और 'दोहा कोश' का प्रधान छन्द दोहा है। कुछ सोरठे तथा अन्य छन्द भी हैं। सिद्धों की भाषा के दो रूप हैं - पूर्वी अपभ्रंश और शौरसेनी अपभ्रंश । इनका समय सन् 800 से 1000 तक है। इन्हीं चौरासी सिद्धों में सबसे वरिष्ठ सरहपा या सरहपाद को कतिपय विद्वान् हिन्दी का प्रथम कवि मानते हैं।
तंत्रशास्त्र से सम्बद्ध एक महत्त्वपूर्ण अपभ्रंश रचना 'डाकार्णव तंत्र' है। इसमें वज्रयान के सिद्धान्तों का विवेचन है। गुरु को इसमें अतिशय महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । भाषा शौरसेनी अपभ्रंश पर आधारित पूर्वी से प्रभावित अपभ्रंश है। इसमें चौपाई आदि प्रमुख छन्द हैं । इनका रचना काल ग्याहरवीं शताब्दी के आसपास है।
शैवों की अपभ्रंश रचनाएँ - कश्मीरी शैव सम्प्रदाय की भी कतिपय रचनाएँ अंशतः अपभ्रंश में उपलब्ध होती हैं। अभिनव गुप्त का 'तंत्रसार' इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति को परम शिव मानकर इसमें शैव मत का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया है पर इसके प्रत्येक अध्याय के अन्त में प्राकृत, अपभ्रंश में सम्पूर्ण अध्याय का सार दिया गया है। इसका रचनाकाल 1014 ई. के आसपास है। ___भट्ट वामदेव महेश्वराचार्य की रचना 'जन्म-मरण विचार' में परम शिव की शक्ति और उसके प्रसार का विवेचन है । इसमें एक दोहा अपभ्रंश में है। इसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ज्ञात होता है। गोरखनाथ के 'अमरोधशासन' में भी अपभ्रंश का एक पद्य मिलता है। कश्मीरी भाषा का प्राचीनतम उदाहरण लल्ला के 'लल्ला वाक्पानि' में देखने को मिलता है। शिति कण्ठाचार्य की रचना 'महानयप्रकाश' में अपभ्रंश के चौरानवे पद्य हैं । इसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।
शैव सम्प्रदाय की इन रचनाओं में साहित्यिकता का अभाव है, पर भाषा और भावधारा की दृष्टि से इनका विशेष महत्त्व है। मध्ययुगीन साधकों की भावधारा की पृष्ठभूमि इनकी सहायता से स्पष्टतर होती है।
ऐहिकतापरक अपभ्रंश साहित्य को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम वर्ग में वे पद्य आते हैं जो अलंकार, छन्द और व्याकरण की पुस्तकों में उद्धृत हैं और दूसरे वर्ग में प्रबन्धात्मक कृतियाँ आती हैं।
प्रथम वर्ग में महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंक के अपभ्रंश पद्य आते हैं जो प्रकृति वर्णन आदि की दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर और सजीव हैं। चण्ड के 'प्राकृत लक्षण' के दो दोहे, आनन्दवर्द्धन के 'ध्वन्यालोक' में प्राप्त एक दोहा, भोज के 'सरस्वती कंठाभरण' के अठारह अपभ्रंश पद्य, हेमचन्द्र के 'अपभ्रंश व्याकरण' में उद्धृत नीति, श्रृंगार, प्रेम तथा नायक-नायिकाओं के रूप-वर्णन आदि अनेक विषयों के छन्द, प्राकृत पैंगल के कुछ पद्य तथा 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' में प्राप्त छन्द भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। ये मुक्तक छन्द संख्या में अधिक नहीं हैं और श्रृंगार, प्रेम, वैराग्य, नीति एवं सूक्ति आदि की विविधता एवं आलंकारिक