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अपभ्रंश भारती7
___ आचार्य हेमचन्द्र सूरि अपभ्रंश के पाणिनी हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि कई भाषाओं के वे प्रकाण्ड पण्डित थे। पाणिनी व्याकरण की व्याख्या और टीका तक ही इन्होंने अपने को सीमित नहीं रखा बल्कि अपने समय तक की भाषाओं के व्याकरण बनाये। इस दृष्टि से इनके 'शब्दानुशासन' को आज भी विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है। उन्होंने इस ग्रंथ को अपने आश्रयदाता, गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह को समर्पित किया था। इसलिए इसे 'सिद्ध हेम शब्दानुशासन' के नाम से भी जाना जाता है।
आचार्य सूरि का जन्म ई. सन् 1088 में गुजरात के धक्कलपुर, धन्धूका नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम चाचिंग तथा माता का नाम पाहिणी था। बचपन में इन्हें चंगदेव के नाम से पुकारा जाता था। सन् 1109 ई. में अन्हिलवाड जैन मठ की गुरु गद्दी पर आसीन होने के पश्चात् ये 'आचार्य सूरि' पद से विभूषित हुए और आचार्य हेमचन्द्र सूरि कहलाने लगे। इनका अधिकांश साहित्य-सजन इसी मठ में हआ था। ___ आचार्य सूरि को राज्याश्रय देनेवालों में गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (संवत् 1150-1199) और उनके भतीजे कुमारपाल (सं. 1199-1230) प्रमुख थे। आचार्य सूरि की प्रेरणा और प्रभाव से ही कुमारपाल ने अन्नतः जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। आचार्य की रचनाओं में 'अभिधान-चिन्तामणि', योगशास्त्र', 'छन्दोऽनुशासन', 'देशी नाममाला', 'द्वयाश्रय काव्य', त्रिषष्ठिशलाका पुरुष' और 'शब्दानुशासन' के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। __ आचार्य सूरि बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न साहित्कार थे। अपभ्रंश भाषा और साहित्य को स्थायित्व प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य इन्होंने किया। ये अपने समय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और प्रशंसित जैन आचार्य थे। अपने शब्दानुशासन और छन्दोऽनुशासन में इन्होंने अपभ्रंश के अनेक दोहे उद्धृत किये हैं जो संयोग, वियोग, वीर, उत्साह, हास्य, नीति, अन्योक्ति आदि से सम्बद्ध हैं। इन दोहों का साहित्यिक सौन्दर्य सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य में सबसे अलग है। उदाहरण के लिए 'शब्दानुशासन' में उद्धृत कुछ दोहे द्रष्टव्य हैं -
__ भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु ।।
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु ॥ अर्थात् भला हुआ, हे बहिन ! जो हमारा कांत मारा गया। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं से लज्जित होती। हेमचन्द्र के दोहे मणियों की मंजूषा के समान हैं।
दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि ।
जं अच्छइ तं माणिअ इं होसइ करतु म अच्छि ॥ - दिन झटपट व्यतीत हो जाते हैं, इच्छाएँ पीछे रह जाती हैं, जो होना है वह होगा ही ऐसा मानकर सोचता हुआ ही मत बैठ।
सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं न वि उज्जाण-वणेहिं । देस रवण्णा होन्ति वढ ! निवसन्तेहिं सु-अणेहिं ॥