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अपभ्रंश भारती 7
'करकण्डचरिउ' आपकी एकमात्र रचना है जिसका अपभ्रंश काव्य-परम्परा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। करकण्डु' इस चरित्रप्रधान काव्य का नायक है। सम्पूर्ण रचना में विस्तार से उसका चरित्रांकन किया गया है - "हे पुत्र ! यह उच्च पुरुष की कहानी जो गुणों की परम्परा वाली है, तेरे लिए कही गयी है, इसको तू हृदय में समझ" -
___ एह उच्चकहाणी कहिय तुझु, गुणसारणि पुत्तय हियइँ बुझु। 2.18 __ जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में भी करकण्डु को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है और दोनों ही साहित्यों में उसे 'प्रत्येक बुद्ध" माना गया है।
दस सन्धियों के इस काव्य में वीर, श्रृंगार और शान्त रस की अद्भुत त्रिवेणी हमें देखने को मिलती है। इसमें श्रुतपंचमी फल और पंचकल्याणक विधि का सविस्तर वर्णन किया गया है। धर्म और संस्कृति के तत्कालीन स्वरूप-चित्रण के साथ ही इसमें मन्दिरों की स्थापत्य कला
और शिल्पांकन का चित्रण कर इसे कवि ने अतिरिक्त वैशिष्ट्य प्रदान किया है। ' महाकवि रयधू को अपभ्रंश साहित्य में सर्वाधिक साहित्य-सृजन का श्रेय प्राप्त है। इनके पिता का नाम साहू हरिसिंह तथा माता का नाम विजयश्री था। साहित्य-सृजन की प्रेरणा और प्रतिभा इन्हें अपने पिता से उत्तराधिकार में मिली थी। मूर्तिनिर्माण में भी इनकी विशेष अभिरुचि थी। अपनी रचनाओं में गोपाचलनगर-ग्वालियर का जैसा विश्वसनीय वर्णन इन्होंने किया है उससे लगता है कि इनका जन्म संभवतः ग्वालियर या उसके आसपास हुआ होगा। विक्रम संवत् 1439 से 1530 तक इनका समय माना जाता है।
महाकवि रयधू ने कुल कितने ग्रंथों का प्रणयन किया था, यह अभीतक प्रामाणिक रूप से ज्ञात नहीं हो सका है। सम्प्रति उनके निम्नलिखित 28 ग्रंथ बताये जाते हैं - 1. बलहद्दचरिउ, 2. मेहेसरचरिउ, 3. कोमुइकहपवंधु, 4. जसहरचरिउ, 5. पुण्णासवकहा, 6. अप्पसंबोहकव्व, 7. सावयचरिउ, 8. सुकोसलचरिउ, 9. पासणाहचरिउ, 10. सम्मइजिणचरिउ, 11. सिद्धचक्कमाहप्प, 12. वित्तसार, 13. सिद्धन्तत्थसार, 14. धण्णकुमारचरिउ 15. अरिट्ठणेमिचरिउ, 16. जमिंधरचरिउ, 17.सोलहकारणजयमाल, 18. दहलक्खणजयमाल, 19. सम्मतगुणणिहाणकव्व, 20. संतिणाहचरिउ, 21. बारह भावना, 22. उवएसमाल, 23. महापुराण, 24. पज्जुण्णचरिउ, 25. करकंडचरिउ, 26. सुदंसणचरिउ, 27. रत्नत्रयी और 28. भविसयत्तकहा।
'धण्णकुमारचरिउ' में एक श्रेष्ठिपुत्र धन्यकुमार का जीवनचरित वर्णित है। यह एक पौराणिक चरितकाव्य है । अनगिन आपदाओं के बाद भी वह अपना धैर्य और साहस बनाये रखता है। अन्ततः अपने साले शालिभद्र के वैराग्य से प्रभावित होकर वह भी वैरागी बन जाता है । अपनी दु:ख-दग्धा माता से वह कहता है - "तू मन में संसार को अनित्य जान। व्यक्ति मोह से जकड़ा हुआ मेरा-मेरा करता है, आयु के समाप्त होने पर कोई भी किसी को पकड़ नहीं सकता। अतः हे माता ! अब और विलम्ब मत करो। तुम जिनधर्म को ग्रहण करो ...' (3-21)।