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अपभ्रंश भारती
घटनाओं के संयोजन द्वारा एक वणिक की कथा वर्णित है । धनपाल की यह काव्यकृति चरितकाव्यों की एक नयी कड़ी है, जिसका प्रभाव आदिकालीन हिन्दी रचनाओं पर भी स्पष्टत: परिलक्षित होता है । हरिषेण की रचना 'धर्मपरीक्षा' कर्मकाण्ड पर करारा व्यंग्य करती है। पुराणकथाओं पर भी इसमें कटु प्रहार किया गया है। इसमें विभिन्न छन्दों का प्रयोग कवि के विस्तृत छन्दज्ञान का परिचायक है। इनका समय विक्रम संवत् 1040 के आसपास है।
महाकवि वीर की गणना अपभ्रंश के यशस्वी कवियों में होती है। इनके पिता देवदत्त भी महाकवि थे। इनका जन्म मालवा के गुलखेड़ नामक गाँव में एक जैन धर्मावलम्बी परिवार में ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ था। इनका जीवनकाल विक्रम संवत् 1010-1085 तक माना गया है। इनकी माँ का नाम श्री संतुवा था। महाकवि वीर प्रारम्भ में संस्कृत में काव्य-रचना करते थे परन्तु बाद में वे अपभ्रंश में रचना करने लगे।
अपनी एकमात्र कृति 'जंबूसांमिचरिउ' के कारण इन्हें अपभ्रंश साहित्य में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसमें जैनधर्म के अन्तिम केवलि 'जंबूस्वामी' का जीवन-चरित ग्यारह सन्धियों में वर्णित है। जंबूस्वामी भगवान महावीर के गणधर सुधर्मा स्वामी के शिष्य थे। भगवान महावीर के निर्वाण के चौसठ वर्ष बाद इन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था। जंबूस्वामी के कथानक को महाकाव्योचित महिमा से मण्डित कर महाकवि वीर ने अपभ्रंश साहित्य को अलंकृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। जंबूस्वामी में मनुष्य जन्म को रत्न के समान - "इय मणुयजम्म माणिक्कसमु" - बताया गया है और कहा गया है कि जो मूढ़ व्यक्ति रति-सुख और विषयवासनाओं में अन्धा बना रहता है, वह नाश को प्राप्त होता है - "इय विसयंधु मूदु जो अच्छइ। कवणभंति सो पलयहो गच्छइ।"
कवि नयनन्दि मुनि जैन आचार्य श्री कुन्दकुन्द की परम्परा में आते हैं। आप संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के उच्चकोटि के विद्वान् तथा छन्दशास्त्र और काव्यशास्त्र के निष्णात आचार्य थे।
'सुदंसणचरिउ' और 'सयल विहिविहाणकव्व' नयनन्दि मुनि रचित दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । 'सुदंसणचरिउ' में सुदर्शन केवलि का चरित्रांकन किया गया है - 'हे पुत्री ! तुम्हारे द्वारा स्वप्न में श्रेष्ठ, ऊँचा और सुन्दर पर्वत देखा गया अतः इसका नाम सुदर्शन रखा जाए।" इसकी रचना अवन्ती देश की धारानगरी के जिनमन्दिर में राजा भोज के शासनकाल में हुई थी। छन्दों की विविधता और विचित्रता की दृष्टि से इस रचना का विशेष महत्त्व है। इसमें लगभग 85 छन्दों का प्रयोग किया गया है। नयनन्दि मुनि की दूसरी रचना 'सयलविहिविहाणकव्व' सम्प्रति अप्रकाशित है। नयनन्दि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है।
कई भाषाओं के ज्ञाता कवि कनकामर का जन्म ब्राह्मण वंश में हुआ था। जैनधर्म से प्रभावित होकर आपने जैनधर्म अंगीकार किया और फिर बाद में दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की। मुनि दीक्षा के उपरान्त ही आप मुनि कनकामर' के नाम से लोक विख्यात हुए। ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को आपका समय माना जाता है। आपके गुरु का नाम पंडित मंगलदेव था।