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अपभ्रंश भारती 7
में कंचुकी द्वारा वृद्धावस्था का यथातथ्य वर्णन और उसपर राजा दशरथ की प्रतिक्रिया आदि दर्शनीय है ।
अपभ्रंश साहित्य में महाकवि स्वयम्भू के बाद महाकवि पुष्पदन्त का नाम आता है। कर्नाटक प्रदेशान्तर्गत बरार निवासी पुष्पदन्त कश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था । पुष्पदन्त पहले शैव मतावलम्बी थे। बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध पर जैन धर्मावलम्बी होकर कविकर्म में प्रवृत्त हो गये थे ।
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'तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकार' अथवा 'महापुराण' 'णायकुमारचरिउ' और 'जसहरचरिउ ' पुष्पदन्त की तीन महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। 'महापुराण' आदिपुराण और उत्तरपुराण नामक दो खण्डों में विभक्त है। इसमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों की कथाएँ वर्णित हैं। भाषा और साहित्य दोनों ही दृष्टियों से यह एक प्रशंसनीय रचना है।
'णायकुमारचरिउ' खण्डकाव्य है जिसमें श्रुतपंचमी का माहात्म्य-वर्णन और नागकुमार का चरित्रांकन किया गया है। 'जसहरचरिउ' भी चरित्रप्रधान काव्य है। इसमें यशोधर की जीवनकथा वर्णित है। अपभ्रंश भाषा की महत्त्वपूर्ण रचना होने के साथ ही इसे महाकवि पुष्पदन्त की सर्वाधिक प्रशंसित कृति होने का सौभाग्य प्राप्त है। प्रकृति और उसके सौन्दर्य से अत्यन्त निकटतर परिचय होने के कारण पुष्पदन्त के वर्णन अत्यन्त जीवन्त और कलात्मक । वे आत्म-सम्मानी और स्वाभिमानी पुरुष थे । 'महापुराण' के अनुसार व्यक्ति के स्वाभिमान का खण्डन उन्हें कतई स्वीकार नहीं था "णउ पुरिसहुअहिमाणविहंडणु ।"
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महाकवि पुष्पदन्त ने विशुद्ध धार्मिक भाव से साहित्य-सृजन का कार्य किया है। 'महापुराण' के प्रथम अध्याय में उन्होंने स्पष्ट लिखा है - "भैरव राजा की स्तुति में काव्य बनाने से जिस 'मिथ्यात्व' ने जन्म लिया था, उसे दूर करने के लिए ही मैंने 'महापुराण' की रचना की है।" शुद्ध धार्मिक भाव से साहित्य-सृजन की यह प्रवृत्ति अपभ्रंश से हिन्दी में भी आयी । फलस्वरूप आदिकाल में धार्मिक साहित्य की एक स्वतंत्र धारा प्रवाहित होती रही, जिसका विकास मध्यकालीन भक्तिकाव्य के रूप में हुआ । इस भक्तिधारा के आविर्भाव में महाकवि स्वयम्भू का उल्लेखनीय योगदान था और इसे पल्लवित पुष्पित करने में महाकवि पुष्पदन्त ने अपनी समस्त काव्यात्मक प्रतिभा अर्पित कर दी थी। इनका जन्म विक्रम की दसवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में हुआ था ।
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पद्मकीर्ति की प्रसिद्ध रचना 'पासचरिउ' है जिसमें पार्श्वनाथ का सम्पूर्ण चरित्र वर्णित है । इनका समय संवत् 992 के आसपास है । धवल ने 'रिट्ठणेमिचरिउ' नामक विशाल ग्रंथ की रचना की थी। इनका समय विक्रम की दसवीं - ग्यारहवीं सदी है। अपभ्रंश के प्रमुख कवि धनपाल ने दसवीं सदी में 'भविसयत्तकहा' की रचना की थी। इसमें सज्जन - दुर्जन- -स्मरण तथा श्रुतपंचमीफल की व्याख्या करते हुए कथा का श्रीगणेश किया गया है। धर्म भावना इस कथा का भी मेरुदण्ड है तथापि लोकहृदय की विभिन्न स्थितियों से इसका निकटतर सम्बन्ध है । इसमें स्वाभाविक