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अपभ्रंश भारती 7
अपभ्रंश के सम्पूर्ण विकासक्रम को डॉ. शिवसहाय पाठक तीन काल-खण्डों में विभाजित करते हैं -
1. आदिकाल (ई. सन् के आसपास से 550 ई. तक), 2. मध्यकाल (550 ई. से 1200 ई. तक) और 3. मध्योत्तर काल (1200 ई. से 1700 ई. तक)।
आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश सम्पूर्ण उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा थी। अपभ्रंश के वैयाकरणों में चण्ड, पुरुषोत्तमदेव, क्रमदीश्वर, हेमचन्द्र, सिंहराज, लक्ष्मीधर, रामशर्मा तर्कवागीश और मार्कण्डेय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । जर्मन विद्वान् रिचर्ड पिशेल को आदर के साथ अपभ्रंश का पाणिनी कहा जाता है।
__ अपभ्रंश के कवियों में स्वयम्भू, पुष्पदन्त, धनपाल, कनकामर, अब्दुल रहमान, धाहिल, जिनदत्त सूरि, जोइन्दु, रामसिंह, लक्ष्मीचन्द या देवसेन, लुईपा, सिद्धकवि भुसुक, दीपंकर, श्रीज्ञान, किलपाद, कृष्णाचार्य, धर्मपाद, टेंटया, महीधर, आचार्य हेमचन्द्र सूरि और कम्बलांवरपाद आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त बौद्ध तांत्रिकों, वज्रयानियों, चौरासी सिद्धों, नाथपंथियों-आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, गैनीनाथ, निवृत्तिनाथ भीमनाथ, सत्यनाथ, हरिशचन्द्र और ज्ञानेश्वरनाथ आदि ने भी अपभ्रंश में अपनी रचनाएँ जनसामान्य के सम्मुख रखीं। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार इन सिद्धों ने - "उसी सर्वमान्य व्यापक काव्यभाषा में लिखा है जो उस समय गुजरात, राजपूताने और ब्रजमण्डल से लेकर बिहार तक लिखने-पढ़ने की शिष्ट भाषा थी। पर मगध में रहने के कारण सिद्धों की भाषा में कुछ पूरबी प्रयोग भी (जैसे - भइले, बूडिलि) मिले हुए हैं। पुरानी हिन्दी की व्यापक काव्यभाषा का ढांचा शौरसेनी प्रसूत अपभ्रंश अर्थात् ब्रज और खडी बोली (पश्चिमी हिन्दी) का था।".
सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य को चार प्रमुख धाराओं में विभाजित, विश्लेषित किया जा सकता
1. जैन अपभ्रंश साहित्य, 2. बौद्ध सिद्ध अपभ्रंश साहित्य, 3. शैव अपभ्रंश साहित्य, 4. ऐहिकतापरक अपभ्रंश साहित्य।
जैन अपभ्रंश साहित्य की धारा हमें विक्रम की आठवीं सदी से सोलहवीं सदी तक प्राप्त होती है। प्राकृत की तरह इसमें भी मुक्तक और प्रबन्ध दो तरह की रचनाएँ मिलती हैं। मुक्तक शाखा की एक उपशाखा 'रहस्यवादी धारा' कही जा सकती है। महाकवि जोइन्दु (योगीन्दु), रामसिंह और सप्रभाचार्य इस धारा के महत्त्वपूर्ण कवि हैं।
महाकवि जोइन्दु अपभ्रंश के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक कवि हैं । अपभ्रंश साहित्य के रहस्यमय निरूपण में इनका नाम सर्वोपरि है। इनके माता-पिता, स्थान और काल आदि के विषय में अबतक प्रामाणिक रूप से कुछ ज्ञात नहीं हो सका है। अधिकतर इतिहासकारों के