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अपभ्रंश भारती 7
अनुसार विक्रम की सातवीं शताब्दी के आसपास इनका जन्म हुआ था। ये जैनधर्म के दिगम्बर आम्नाय के आचार्य और उच्चकोटि के रहस्यवादी साधक थे ।
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'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' इनकी दो विशिष्ट उल्लेखनीय कृतियाँ हैं । इनमें आत्मा, परमात्मा और मोक्ष सम्बन्धी प्रश्नोत्तर तथा नैतिक उपदेश हैं । जोइन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' की रचना अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के लिए की थी। इसमें आत्मा का त्रिविध रूप - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा वर्णित है। जैनदर्शन पर आधारित इस आध्यात्मिक ग्रंथ का अपभ्रंश के मुक्तक काव्यों में सर्वोच्च स्थान है 1
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महाकवि जोइन्दु की दूसरी रचना 'योगसार' में आध्यात्मिक गूढ़ताओं को अत्यन्त सरलता विवेचित किया गया है। इसमें योग द्वारा मुक्ति के उपायों का वर्णन किया गया है। अपभ्रंश के विशिष्ट छन्द 'दोहा' में इन दोनों ग्रन्थों की रचना की गयी है। साम्प्रदायिकता से अलिप्त होने के कारण ये दोनों रचनाएँ काफी लोकप्रिय हुईं। लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से आध्यात्मिक तत्त्वों को बोधगम्य बनाने में जोइन्दु काफी सफल हुए हैं। परवर्ती अपभ्रंश कवियों के साथ ही हिन्दी के सन्त कवियों पर भी इन दोनों रचनाओं का प्रचुर प्रभाव पड़ा 1
'पाहुड दोहा ' रामसिंह का एकमात्र ग्रन्थ है। इनके विषय में भी हमें कोई विशेष जानकारी नहीं है । इनका समय दसवीं शताब्दी के आसपास है। राहुलजी के अनुसार मुनि रामसिंह राजस्थान के निवासी थे । आप साम्प्रदायिकता और संकीर्णताओं के विरोधी उदारमना चिन्तक थे। अपने समय में इन्होंने निरक्षर जनसामान्य के लिए ज्ञान का सहज द्वार खोलकर अपनी क्रान्तिकारी प्रगतिशीलता का परिचय दिया था ।
'पाहुड दोहा' में गुरु, आत्मसुख, शरीर, आत्मा, समरसी भाव और मोक्ष आदि का वर्णन है। नारी निंदा तथा नीति सम्बन्धी बातें भी इसमें देखने को मिलती हैं। 'पाहुड' यहाँ 'उपहार' के अर्थ में प्रयुक्त है। इसमें आत्मानुभूतियों का संग्रह है, जिसे उपहार के रूप में कवि ने पाठकों के समक्ष रखा है। इसकी भाषा शौरसेनी अपभ्रंश है जो अत्यन्त सरल, सहज और पैनी है। अपनी संक्षिप्त, सटीक और भावपूर्ण आकर्षक अभिव्यंजना के लिए कवि रामसिंह सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य में सदा अविस्मरणीय बने रहेंगे ।
सुप्रभाचार्य की रचना का नाम 'वैराग्यसार' है। इसमें माया-ममता और सांसारिक सुखों से दूर रहकर वैराग्य भाव अपनाने पर बल दिया गया है। महाणंदि (1000 ई. से 1400 ई. के मध्य ) का ‘आणन्दा' और महचन्द (1600 ई.) का 'दोहा पाहुड' भी इस धारा की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। दूसरे सम्प्रदायों के प्रति उदारता, विचारों में प्रगतिशीलता और चारित्रिक शुद्धता आदि इस धारा की रचनाओं की मुख्य विशेषताएँ हैं ।
मुक्तक शाखा की दूसरी उपशाखा 'उपदेशात्मक धारा' है। देवसेन, जिनदत्त सूरि और महेश्वर सूरि इस धारा के मुख्य कवि हैं। देवसेन (संवत् 990) रचित 'सावयधम्म दोहा' इस धारा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है। 'चर्चरी', 'उपदेश रसायन' और 'कालस्वरूप कुलक'