SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश भारती 7 पंचहं णायकु वसि करहु जेण होंति वसि अण्ण । मूल विणट्ठइ तरुवरहं अवसई सुक्कहिं पण्ण ॥ प. प्र. 2.140 ॥ मन और पंचेन्द्रियों को नियंत्रित करने से आर्त्त-रौद्र ध्यान नहीं होता और प्राणी के आकुलव्याकुल परिणाम नहीं होते । संतुष्ट भावों से शांति मिलती है। सम्यग्दृष्टि बनें अनुकूलता और प्रतिकूलता में समता भाव होना ही समदृष्टि है। इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं - जो रागभाव में रीझता नहीं है तथा द्वेषभाव में खीजता नहीं है वह समतावान / समदृष्टि है। इसे ही सम्यग्दृष्टि कहते हैं। जो राग और द्वेष को छोड़कर जीवों को समान देखते हैं वे रागद्वेष-रहित भाव में स्थित हुए हैं। इसलिए वे शीघ्र ही परम शान्ति प्राप्त करते हैं राय - दोस बे परिहरिवि जे सम जीव णियंति । ते समभावि परिट्ठया लहु णिव्वाणु लहंति ॥ प. प्र. 2.100 राग-द्वेष- परिणामों को छोड़कर निज आत्मा में वास करना ही धर्म है। यह धर्म ही पंचम गति अर्थात् मोक्ष ले जाता है - 89 - - राय-रोस बे परिहरिवि जो अप्पाणि बसेइ । सो धम्मु वि जिण - उत्तियउ जो पंचमगइ पोइ ॥ यो. सा. 48 ॥ समता भाव आत्मज्ञानी के ही होता है। आत्मज्ञानी ही समत्वभाव से परम शान्ति / सुख को प्राप्त करता है । परमात्मा का ध्यान दुःख निवृत्ति के लिए आसक्ति परिहार, चित्त-शुद्धि, इन्द्रिय और मन को संयम के साथ ध्यान आवश्यक है। ध्यान से ही साधना पूर्ण होती है । परमात्मप्रकाशकार ने अपने कथन की पुष्टि दृष्टान्तों द्वारा की है भव-तणु-भोय - विरत्तमणु जो अप्पा झाए । तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥ 1.32 ॥ जो व्यक्ति संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर (परम) आत्मा का ध्यान करता है उसकी संसाररूपी/मानसिक तनावरूपी घनी बेल नष्ट हो जाती है । इसलिए कविवर जोइन्दु का कथन है। परमात्मा का ध्यान करते समय ऐसी ऊर्जा निकलती है जिससे कर्मों का क्षय उसी प्रकार हो जाता है जैसे अग्नि की ऊर्जा लकड़ी के ढेर को जलाकर नष्ट कर देती है। 14 अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएं अण्णेण । जो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क खणेण ॥ प. प्र. 1.97 ॥ गिहि-वावार - परिट्ठिया अणुदिणु झाहिँ देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति ॥ यो. सा. 18 ॥ याउ
SR No.521855
Book TitleApbhramsa Bharti 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1995
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy