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अपभ्रंश-भारती 5-6
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भाट, चारण आदि कुछ वर्ग के लोगों की जन्मजात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं। लेकिन यह दृष्टि अधूरी है।
अपभ्रंश भाषा का लोप वैज्ञानिक-औद्योगिक प्रवृत्ति एवं व्यापार-दृष्टि से शहरीकरण (ग्राम-मंडियों का विकास) एवं वैचारिक, भौतिक-सुख से संपन्न होने के कारण होने लगा। राजाश्रित कवियों को भाषागत संरक्षण मिलने की परंपरा से भी अपभ्रंश भाषा का स्वरूप, अंचल की भाषा से भी कम होने लगा। वस्तुतः यह दृष्टि भ्रांति एवं शोध के अपूर्ण साधन से उत्पन्न हुई-सी लगती है। चाणक्य-नीति के मराठीमूल में तत्सम शब्दों की प्रचुरता इस बात का द्योतक है कि अपभ्रंश भाषा ग्यारहवीं शताब्दी तक आते-आते व्यावहारिक लोकभाषा के रूप में पहचानी जाने लगी
कवि राजशेखर के अनुसार पूर्व की ओर प्राकृतिक भाषा के कवि उनके पीछे तट, नर्तक, वादक, वाग्जीवन, कुशीलव, तालावचर हैं तो पश्चिम की ओर अपभ्रंश भाषा के कवि और उनके पीछे चित्रकार, लेपकार, मणिकार, जौहरी, सुनार, बढ़ई, लोहार आदि। __ डॉ. नामवरसिंह के अनुसार - "अपभ्रंश काव्य की भाषा में ध्वन्यात्मक शब्द प्रयुक्त हुए हैं और भावानुकूल शब्द-योजना तथा अर्थ की व्यंजना के लिए तदनुकूल ध्वनि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भाषा चलती हुई, आकर्षक है। इसी लोक तत्त्व के द्वारा अपभ्रंश साहित्य ने भारतीय साहित्य में अपना ऐतिहासिक कार्य संपन्न किया।"
"अपभ्रंश के उत्तरकाल में देश की जैसी स्थिति थी वैसी ही पुरानी हिन्दी के प्रारंभिक युग में थी। अपभ्रंश का उपलब्ध साहित्य प्राकृत के समान है, मधुर तथा काव्यात्मक सौंदर्य से अनुरंजित है।
जैन अपभ्रंश साहित्य का वर्गीकरण
काव्य
प्रबंध
मुक्तक
महाकाव्य एकार्थ खण्डकाव्य
गीत दोहा चउपई फुटकर
(स्तोत्र-पूजा)
पुराण काव्य चरित काव्य कथा काव्य
ऐतिहासिक काव्य
प्रेमाख्यान व्रतमाहात्म्यमूलक उपदेशात्मक उपरोक्त विवरणों में शोध संभावनाएँ निहित हैं। क्योंकि हाड़ौती अंचल में, किशनगढ़ तथा अन्य अंचलों में अपभ्रंश भाषा के शब्द, लय, माधुर्य हमें भक्ति, संत-गायन में मिलती हैं।
अपभ्रंश भाषा आज भी जीवित है। व्याकरणिक-भाषा से अलग।अवहट्ट अपभ्रंश कीर्तिलता में गद्य-पद्य दोनों का संयुक्त प्रयोग देखकर विद्वानों ने इसे 'चम्पू' कहा। यही चम्पू काव्य परंपरा