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________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 भोजशाला में खुदवा के जड़ा था। यह भोजशाला आजकल धार की कमाल मौला की मस्जिद के नाम से मशहूर है।" अपभ्रंश भाषा घुमक्कड़ों-आभीरों की भाषा के रूप में भी मानी गई। यह "अनुमानतः ई. सन् 181 के क्षत्रप रुद्रसिंह के एक लेख से पता चलता है। उनके प्रधान सेनापति रुद्रभूति आभीर थे। 12 वस्तुतः भाषा का प्रचलन सदैव सम्पर्क व जनमानस की ग्रहण-शक्ति से भी प्रभावित होता रहा है। आचार्य डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने ये स्पष्ट तथ्य दिये हैं कि छन्द, काव्यरूप, काव्यगत रूढ़ियों और वक्तव्य वस्तु की दृष्टि से दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का लोकभाषा का साहित्य परिनिष्ठित अपभ्रंश में प्राप्त साहित्य का ही बढ़ाव है, यद्यपि उसकी भाषा अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न है। यह विचारणीय संदर्भ भी है कि जिस समय आभीरों की भाषा में (अपभ्रंश में) छप्पय, दोहा, सोरठा का स्वरूप साहित्यकारों ने कालबद्ध (10वीं से 14वीं शताब्दी तक) किया तब ही अपभ्रंश भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा बनी तथा व्याकरण और बोलचाल के मिश्रण से लोकभाषा के रूप में प्रसार पाने लगी। यही पक्ष हमें इस दिशा की ओर भी आकर्षित करता है कि अपभ्रंश भाषा और लोकभाषा के मध्य तत्सम शब्दों का बाहुल्य आज भी देखने को मिलता है। __ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी की प्रसिद्ध कृति 'हिन्दी साहित्य' में अपभ्रंश भाषा ईसा की प्रथम शती की मानी गई है। आभीरों की प्रवृत्ति घुमक्कड़ रही जो स्थान-स्थान पर आखेट करते थे। विशेष प्रकार का स्वर-वैचित्र्य और उच्चारण-प्रावण्य इसका प्रधान लक्षण था। यद्यपि यह आभीरी नाम से पुकारी गयी, पर थी आर्य भाषा। ___ अपभ्रंश भाषा में तत्सम शब्दों का बाहुल्य देखकर मुझे लगता है कि दरबारी-राजाश्रय प्राप्त कवियों ने राजा की प्रशंसा हेतु जन साधारण में अपने ग्रंथों के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से यह स्वतंत्रता ले ली थी, जैसे पुष्पदन्त (राष्ट्रकूट के राजा कृष्णराज के आश्रित) की कृति में यह प्रवृत्ति है। ___ जयपुर में (पूरे राजस्थान में फैले) कठपुतली-कला से जुड़े परिवारों की भाषा, बोली तथा लुहारू जाति की बोली का उच्चारण अथवा भौगोलिक क्षेत्रीय परम्परा के स्वरूप को देखकर भी यह लगता है कि आज भी जन बोलियों में अपभ्रंश-भाषा जीवित है। भले ही उसका स्वरूप साहित्य के पक्ष से भिन्न हो गया हो। ___ 'कब तक पुकारूं' उपन्यास में रांगेय राघवजी ने एक परम्परात्मक संस्कृति का उल्लेख किया है जो आभीरी-परंपरा के निकट की दिखायी देती है। जैसे कि 'मैला आँचल' में फणीश्वरनाथ रेणुजी ने मिथिला पृष्ठभूमि को सामने रखा है। मेनारियाजी ने भी कहा है - "रासो ग्रन्थ, जिनको वीरगाथा नाम दिया गया है, जिनके आधार पर वीरगाथा काल की कल्पना की गई है, राजस्थान के किसी समय-विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को सूचित नहीं करते, केवल
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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