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अपभ्रंश-भारती 5-6
जनवरी-जुलाई-1994
अपभ्रंश भाषा से जनभाषा
की विकास-प्रवृत्तियाँ
- श्रीमती अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता
'शब्द' भाषा, उसकी गति एवं उसके विकास की शक्ति है। एक विशेष समुदाय की पहचान भौगोलिक क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा से होती आ रही है, क्योंकि 'शब्द' अर्थवान् सामंजस्य के साथ-साथ मनुष्य को आपसी व्यवहार और संवेदना भाव से जोड़ते हैं। सही मायनों में हम देखें तो शब्द अर्थवत्ता के सूक्ष्म केन्द्र में स्थापित हो समाज में, साहित्यकारों में एवं कवियों में समयानुकूल संस्कारों को उभारते हैं जिनमें दूरगामी प्रभावों के साथ-साथ परंपरात्मक-शैली, कथ्य, भावभूमि, जनोपयोगी मीमांसा का स्वरूप भी निहित होता है। अपभ्रंश भाषा की महत्ता भारतीय भाषाओं के विकास की दृष्टि से इसीलिए महत्त्वपूर्ण है और रहेगी, क्योंकि अपभ्रंश भाषा का संगठित स्वरूप हमें 10वीं शताब्दी से भी कई साल पहले का मिलता है।
संयुक्त परिवारों की, भारतीय समाज में कुटुम्ब की, समुदाय की, परिकल्पना के साथ-साथ अपभ्रंश भाषा के परिनिष्ठित-स्वरूप को लोक भाषा एवं अपनी भाषा मानकर ग्रहण करना आरंभ कर दिया गया था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने 'हिन्दी साहित्य' कृति में विशेषरूप से लिखा है - "दसवीं शताब्दी की भाषा में लिखित जो साहित्य उपलब्ध हुआ है उसमें परिनिष्ठित अपभ्रंश से कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा का रूप दिखायी देता है। स्वयं महाराज भोज ने अपभ्रंश से मिलती-जुलती हुई प्राकृत भाषा की कविता लिखी थी और उसे बड़े आदर के साथ अपनी