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________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 69 - संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को कौनसा सुख होता है ? वह अनेक प्रकार के असुहावने दुःखों को ही पाता है। नरक लोक में वह पूर्व जन्म के वैरी अनेक नारकियों द्वारा मारा जाता है। वहाँ पर ऐसे बड़े-बड़े दुःखों को भोगता है जो हृदय से सोचे भी नहीं जा सकते। परस्पर जाति-विरोधी तिर्यंचों के बीच उत्पन्न होकर उनके द्वारा मुख-बन्धन, छेदन, ताड़न, अंगफाड़न दुःखों को प्राप्त करता है। मनुष्यभव में मान धारण करता हुआ अपने मन में सलबलाता और परिक्षीण होता रहता है। सुरलोक में पहुँच कर वह नष्ट-बुद्धि जीव दूसरों की ऋद्धि देखकर मन में खीझता रहता है। जिस प्रकार नट नारी नाना रूप धारण करती है उसी प्रकार यह जीव नाना कलेवर धारण करता है। ___ संसार भावना में चारों गति के दुःखों का निरूपण, संसार की असारता और संयोगों की निरर्थकता से अवगत कराया गया है। ___ अनित्यादि पूर्वोक्त भावनाओं में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणता एवं निरर्थकता को स्पष्ट किया गया है फिर भी सभी को अपनी-अपनी भूमिकानुसार सुख-दुःख एक साथ मिलजुलकर भोग लेने का विकल्प उठा ही करता है। इस विकल्प को जड़ से नष्ट करने के लिए ही एकत्व और अन्यत्व भावना का चिन्तन किया जाता है। जीवन-मरण, सुख-दुःख आदि सभी स्थितियाँ जीव को अकेले ही भोगनी पड़ती हैं। इस तथ्य का चिन्तन-मनन एकत्व भावना में किया जाता है - जीवहाँ सुसहाउ ण अत्थि को वि, णरयम्मि पडंतउ धरइ जो वि । सुहिसजणणंदणइट्ठभाय, णवि जीवहो जंतहो ए सहाय । णिय जणणि जणणु रोवंतयाइँ, जीवे सहुँ ताई ण पर गयाइँ। धणु ण चलइ गेहहो एक्कु पाउ, एक्कल्लउ भुंजइ धम्म पाउ । तणु जलणि जलंतइ परिवडेइ, एक्कल्लउ वइवसघरि चडेइ । जहिँ णयणणिमेसु ण सुहु हवेइ, एक्कल्लउ तहिँ दुहु अणुहवेइ । अहिणउलसीहवणयरहँ मज्झे, उप्पजइ एक्कु वि जिउ असज्झे । सुरखेयरकिंणरसुहयगाम, तहिं भुंजइ एक्कु वि जियइ जाम । १.9.1-8 - जीव का ऐसा कोई भी सुसहायक नहीं है जो उसे नरक में गिरने से बचा ले। सुहृद्, स्वजन, पुत्र, इष्ट, भ्राता ये जाते हुए जीव के सहायक नहीं होते। अपनी जननी-जनक रोते हुए भी जीव के साथ एक कदम नहीं जाते। धन एक पैर भी घर के बाहर साथ नहीं चलता। जीव अकेला ही धर्म या पाप के फल को भोगता है। शरीर जलती हुई अग्नि में गिरकर भस्म हो जाता है। जीव अकेला ही यम के घर को चढ़ता है। वहाँ नयन-निमेष भाग (पलभर) भी सुख नहीं होता। जीव अकेला ही दुःख का अनुभव करता है। असाध्य (दुःखपूर्ण) अहि, नकुल, सिंह आदि वनचरों के बीच जीव अकेला ही उत्पन्न होता है। सुर-खेचर-किन्नरों के सुन्दर ग्राम में जीव अकेला ही जब तक जीता है, भोग भोगता है।
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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