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अपभ्रंश - भारती 5-6
उक्त छन्द में कवि ने एकत्व भावना द्वारा संसार से उदासीनता और वीतरागभाव जागृत करने का सफल प्रयास किया है। पूज्यपाद स्वामी ने भी सर्वार्थसिद्धि में एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन और फल बतलाते हुए लिखा है -
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एवं यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यानुबन्धो न भवति परंजनेषु च द्वेषानुबन्धी नोपजायते । ततो निसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते ।
इस प्रकार चिन्तवन करते हुए जीव के स्वजनों में प्रीति का और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता। इसलिए निसंगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।
एकत्व भावना का प्रयोजन यही है कि मनुज पर का साथ खोजने के विकल्प से विरत हो और आत्मस्वरूप को पहचानकर उसी में लीन रहे ।
एकत्व भावना के कथ्य को ही अन्यत्व भावना में नास्ति से स्पष्ट किया गया है परिपोसिउ उसहंसएहिँ जं पि, भिण्णउ सरीरु जीवाउ तं पि । लोयणइँ सुतारईँ दीहराईं, जीवहो परिभिण्णइँ सुहयराइँ । जीहा तरूपल्लवसण्णिहा वि, जीवहो दूरेण वि साथिया वि । तणुफंसगंधकण्णहं समिध्दि, जीवहो अइभिण्णी रूवरिद्धि । जे अवर वि गुण कायहो मिलंति, ते जीवहो भिण्णा संचलंति । जे कायहो थूला बहुय के वि, अइसहुमा जीवहो दूरे ते वि । कोहाइचक्कु वि पुण्णपाव, ते जीवहो भिण्णा कम्मभाव । 9.10.2-7
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- जो सैकड़ों औषधियों से परिपोषित किया जाता है वह शरीर भी जीव से भिन्न है। बड़े
बड़े दीर्घ सुखकारी लोचन भी जीव से भिन्न हैं। वृक्ष के पल्लव समान यह चंचल जिह्वा भी जीव से दूर ही स्थित है। शरीर के स्पर्श, गन्ध व कानों के गुण तथा रूप-रिद्धि जीव से अति भिन्न है। अन्य जो भी गुण काया में आ मिलते हैं वे सब जीव से भिन्न होकर चले जाते हैं । काय के बहुत से स्थूल-सूक्ष्म आदि गुण हैं, वे भी जीव से दूर ही हैं। क्रोधादि चारों कषाएं और पुण्यपाप ये सब कर्मभाव जीव से भिन्न हैं।
यहाँ अन्यत्व भावना का मूल प्रयोजन है - विभिन्न संयोगों के मेले में खोये निज शुद्धात्म तत्त्व को खोजना, पहचानना, पाना, उसे सबसे भिन्न-निराला जानना, उसका ही सदा चिन्तन करना, उसकी ही भावना मानना, उसी का ध्यान करना, उसी में जमना, रमना, उसी में लीन हो जाना, विलीन हो जाना तथा उसी में सम्पूर्णतः समा जाना ।'
शरीर सम्बन्धी रागात्मक विकल्पों के शमन के लिए देह विषयक अशुचिता का चिन्तन अशुचि भावना है। करकण्डु के अशुचि भावना सम्बन्धी विचार इस प्रकार हैं
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एहु देहहो भणु गुणु को विहाइ, कउ मंडणू असुइ सहावें जाइ । जे ायण तरल विब्भमगया वि, ते दूसाणिवहहिँ दूसिया वि । भासारंधो का विसुद्धि, जहिँ गलइ सिंभु पयडउ असुद्धि । गुणम अहरे जणु किं कलेइ, जहिँ लालासारणि परिघुलेइ ।