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________________ 68 अपभ्रंश-भारती 5-6 रयणीए परिसमणु, संगामे सुरदमणु । आवइएँ पत्ताई, हिययम्मि सुत्ताई। तहो किं पि णउ फुरइ, उढेइ वइसरइ । अह विवरें पइसरउ, सुरलोउ अणुसरउ । सुरगिरिहि आरूहउ, पंजरहिँ तणु छुहउ । बंधवहिँ मित्तेहिँ, करधरियकुंतेहि । पुत्तेहिँ सुत्थियउ मंतेहिं रक्खियउ । भडणियरपरियरिउ, णउ तेहिँ पुणु धरिउ । बलएउ चक्कहरु, सुरणाहु णहे खयरु । जमु वरुणु धरधरणु, ण वि होइ कुवि सरणु । 9.7.1-10 - (जीव) रात्रि में विश्राम करता है, संग्राम में देवों का दमन करता है, किन्तु जब आपत्ति पड़ती है तब हृदय सो जाता है। उसकी कोई चेष्टा नहीं रहती है। वह न उठता है, न बैठता है। चाहे गुफा में छिपो, सुरलोक का अनुसरण करो। सुरगिरि पर चढ़ो या पिंजरे में (अपने) शरीर को डाल रखो। चाहे बन्ध और मित्र हाथ में भाला लिये खडे रहें, पुत्र बचाते रहें और मन्त्र रक्षा करते रहें या योद्धाओं का समूह घेरे रहे किन्तु ये सब मृत्यु से नहीं बचा सकते। बलदेव, चक्रधारी नारायण, सुरेन्द्र, आकाशगामी खेचर, यम, वरुण, शेषनाग कोई भी शरण नहीं होता है। यहाँ पर कवि ने अनेक युक्तियों द्वारा संयोगों और पर्यायों की अशरणता/असुरक्षा को स्पष्ट किया है। अशरण' अहस्तक्षेप का सूचक है। किसी भी द्रव्य के परिणमन में किसी अन्य द्रव्य का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं चलता। कोई व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, वह अन्य द्रव्य के परिणमन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। वस्तु की इस स्वभावगत विशेषता का चित्रण एवं पर्यायों के स्वतंत्र परिणमन का चिन्तन ही अशरण भावना का मूल है। इस भावना का केन्द्र बिन्दु है - 'मरते न बचावे कोई'। मृत्यु की अनिवार्यता और अशरणता के मर्मभेदी सत्य का द्योतनकर मानव की बचाने की संशयात्मक वृत्ति और रागात्मक वृत्ति को जड़मूल से नष्ट करना ही अशरण भावना का मुख्य प्रयोजन है। ___यद्यपि अनित्य और अशरण भावना में वस्तु का सम्यक्स्वरूप स्पष्ट हो जाता है तथापि रागवश मानव को यह भ्रम हो सकता है कि संयोग भले ही अस्थायी हैं पर जब तक हैं तब तक तो इनसे सुख मिलेगा ही मिलेगा। इस भ्रम का निवारण संसार भावना में किया गया है - संसार भमंतह कवणु सोक्खु, असुहावउ पावइ विविहदुक्खु । णरयालई णाणाणारएहिँ, चिरकियहिं णिहम्मइ वइरएहि । हियएँ ण वि चिंतहुँ सक्कियाइँ, तहिँ भुत्तई पवर' दुक्किया। अवरुप्परु जाइविरुद्धएहि, तिरियाण मज्झे उप्पण्णएहिं । मुहबंधणछेयणताडणाई, पावियई तेहिँ तणुफाडणाई। मणुयत्तणे माणउ परिमलंतु, परिझिज्जइ णियमणे सलवलंतु । सुरलोएँ पवण्णउ णट्ठबुद्धि, मणि झिजइ देक्खिवि परहोरिद्धि । णडणारि जेम रूवई करेइ, तिम जीउ कलेवर सई धरेइ । 9.8.1-8
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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