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अपभ्रंश-भारती 5-6 छह तत्वपरक हैं। प्रत्येक के क्रम में भी एक विकास दृष्टिगोचर होता है। यहाँ पर मात्र आरम्भ की छह वैराग्योत्पादक भावनाओं के प्रयोजन विचारणीय हैं।
जब नारी के हृदयविदारक विलाप का कारण राजा करकण्डु को ज्ञात होता है तब उनका वैराग्य भाव जागरित हो जाता है। वे संसार, शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता का चिन्तन करते हैं -
धी धी असुहावउ मच्चलोउ, दुहकारणु मणुवह अंगभोउ ।
रयणायरतुल्लउ जेत्थु दुक्खु, महुबिंदुसमाणउ भोयसुक्खु ॥ 9.4.7-8 - धिक्-धिक् यह मर्त्यलोक असुहावना है। शरीर का भोग ही मानव के दुःख का कारण है। जहाँ समुद्र के तुल्य महान् दुःख हैं और भोगों का सुख मधुबिन्दु के समान (अत्यल्प) है।
दइवेण विणिम्मिउ देहु जंपि, लायण्णउ मणुवहँ थिरु ण तं पि । णवजोव्वाणु मणहरु जं चडेइ, देवहि वि ण जाणिउ कहिँ पडेइ । जे अवर सरीरहि गुण वसंति, ण वि जाणहुँ केण पहेण जंति । ते कायहो जइ गुण अचल होंति, संसार, विरइ ण मुणि करंति । करिकण्ण जेम थिर कहि ण थाइ, पेक्खंतह सिरि णिण्णासु जाइ ।
जह सूयउ करयति थिउ गलेइ, तह णारि विरत्ती खणि चलेइ ॥ १.6.1-6 - दैव के द्वारा जिस देह का निर्माण किया गया है मानव का वह लावण्य भी स्थिर नहीं है। मानव जिस मनोहर नवयौवन पर चढ़ता है, वह भी देवों के द्वारा न जाने कहाँ पटक दिया जाता है। शरीर में जो-जो अन्य गुण निवास करते हैं वे सभी न जाने किस मार्ग से निकल जाते हैं। यदि काय के वे गुण अचल होते तो मुनि संसार से विरक्ति नहीं करते। गजकर्ण के समान लक्ष्मी स्थिर नहीं ठहरती, देखते ही देखते विनष्ट हो जाती है। जिस प्रकार पारा हथेली पर रखते ही गल जाता है उसी प्रकार नारी विरक्त होकर एक क्षण में चली जाती है।
कवि ने अनित्य भावना में संयोगों की अनित्यता, क्षणभंगुरता को स्पष्ट किया है। इसका प्रयोजन आत्महित में उद्यत मानव की अज्ञानजन्य आकुलता को नष्ट करना और राग-द्वेषजन्य आकुलता क्षीणकर उसे समताभाव में स्थित करना है । यह भावना हमें वस्तु के परिणमन स्वभाव को सहज से स्वीकारने, संयोगों की क्षणभंगुरता का आपत्ति के रूप में नहीं - सम्पत्ति के रूप में प्रसन्नचित्त से स्वागत करने, संयोगों-वियोगों में समताभाव रखने एवं संयोगों को मिलानेहटाने के निरर्थक विकल्पों से यथासंभव विरत रहने हेतु प्रेरित करती है। इसका लक्ष्य निज दृष्टि को परिणमनशील संयोगों और पर्यायों से हटाकर आत्म-स्वभाव की ओर ले जाना है।
. अनित्य भावना में संयोगों की क्षणभंगुरता का बोध कराया गया है फिर भी अज्ञानी को अज्ञानवश और ज्ञानी को रागवश शरीर जैसे संयोगी पदार्थ को स्थिर रखने/सुरक्षा करने सम्बन्धी विकल्प-तरंगें उठती रहती हैं और चित्त को आकुल-व्याकुल करती हैं। इन विकल्पों का शमन करना ही अशरण भावना का उद्देश्य है -