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तथा लोक-माधुरी से ओत-प्रोत लघु प्रबन्धात्मक रचनाएं हैं। फागु-काव्य का विकास लोक- . मानस की भाव-भूमि पर हुआ है। रासक-काव्य के समान संभवतः यह अपने आदि रूप में नृत्यगीतपरक रहा होगा; कालावधि में यह साहित्यिक रूप धारण करता गया और इसकी संस्थापना अलकृत-काव्य के रूप में हुई। इसमें गीतितत्त्व की प्रधानता मिलती है परन्तु कतिपय कृतियों में काव्य-तत्त्व का भी समावेश मिलता है।
हिन्दी साहित्य की भक्तिकालीन संत-परम्परा की पृष्ठभूमि में विशुद्धि तत्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रहा है। योगीन्द्र इसके प्रस्थापक थे, मुनि रामसिंह संयोजक थे और कबीर ने इसके प्रचारक के रूप में काम किया था। __जैनधर्म सम्प्रदाय होते हुए भी सम्प्रदायातीत है और कदाचित् उसके इसी तत्व ने कबीर को आकर्षित किया हो। यही कारण है कि उनकी विचारधारा पूर्ववर्ती जैन संतों से बहुत मेल खाती है। मुनि रामसिंह हिन्दी साहित्य के आदिकालीन अपभ्रंश के अध्यात्म-साधक कवि रहे हैं जिन्होंने दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में एक नई क्रान्ति का सूत्रपात किया। उनकी साधना आत्मानुभूति अथवा स्वसंवेद्यज्ञान पर आधारित थी इसलिए उनके ग्रंथ 'पाहुडदोहा' में अध्यात्म किंवा रहस्यवाद के तत्त्व सहज ही दृष्टिगत होते हैं। मुनि रामसिंह के पाहुडदोहा को संत-परम्परा की आधारशिला माना जा सकता है। संत-साहित्य की पृष्ठभूमि के निर्माण में रामसिंह के चिन्तन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह आश्चर्य का विषय है कि हिन्दी के विद्वानों ने आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य को मात्र धार्मिक साहित्य मानकर उसे उपेक्षित कर दिया जिससे हिन्दी संतपरम्परा के तुलनात्मक अध्ययन का एक कोना अछूता-सा रह गया । समूची संत-परम्परा भले ही किसी न किसी धर्म से सम्बद्ध रही हो पर उनके चिन्तन के विषय बहुत अधिक पृथक् नहीं रहे। आत्मा-परमात्मा, कर्म-पाखण्ड, सांसारिक माया, सद्गुरु-सत्संग आदि जैसे विषयों पर सभी ने अपनी कलम चलाई है। . __ जैन मुनियों द्वारा प्रणीत अपभ्रंश साहित्य अधिकांशतः प्रबन्धपरक ही है और कथा-काव्यों की परम्परा का अनुगामी रहा है। परन्तु कथा-शिल्प इनका अपना तथा मौलिक है। इस प्रकार इनका कर्तृत्व कविता और कला, भाव और व्यंजना, कथा-संगठन और कल्पना एवं भाषा और बन्ध के मणिकांचन संयोग से अद्वितीय बन गया है।
संदेश-रासक जैसा कि इसके नाम से प्रकट होता है - रासक काव्य है। कथानक के आधार पर संदेश-रासक प्रेम-काव्य है। उसमें नायिका के विरह-निवेदन की प्रमुखता है। संदेश-रासक के कवि श्री अग्रहमाण ने यद्यपि रूप-वर्णन के लिए अधिकांशतः परम्परागृहीत उपमानों का ही आश्रय लिया है, फिर भी उन्होंने अपने हृदय-रस से स्निग्ध करके उसे वास्तविक और हृदयस्पर्शी बना दिया है। कहीं-कहीं अद्दहमाण ने स्वच्छन्द कल्पना-शक्ति का भी परिचय दिया है जो उनके संवेदनशील कवित्व का परिचायक है। संदेश-रासक में यद्यपि विरह के अन्तर्गत शारीरिक दशाओं का ही वर्णन अधिक हुआ है, किन्तु कवि ने उसे इतने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है कि वह हृदय में बहुत दूर जाकर गहरी संवेदना को जगाता है। बाह्य व्यापारों को चित्रित करने में भी संदेश-रासक की पदावली अत्यन्त प्रभावशालिनी है। कवि की भाव-प्रेरित अनुभूति
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