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सम्पादकीय यह निर्विवादरूप से एतिहासिक सत्य है कि आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंश से हुआ। हमारी पूर्ववर्ती परम्परा अपभ्रंश की साहित्यिक परम्परा रही, आज हिन्दी के भाषावैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। भक्तिकाल/रीतिकाल पर अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी के विद्वान् स्वीकार करते हैं। हर समृद्ध साहित्य अपने अतीत से कुछ ग्रहण करता रहता है मात्र सैद्धान्तिक धरातल पर ही नहीं, व्यावहारिक धरातल पर भी, और व्यवहार का धरातल समाज का होता है, लोक का होता है। कहना न होगा कि अपभ्रंश के कवि लोक के मनोरंजन को ध्यान में रखते थे। इसके पीछे अपभ्रंश के कवियों की विवशता नहीं, युग एवं परिवेश की सामयिक माँग थी जिसे रचनागत धरातल पर किसी भी सचेतस सजग रचनाकार को प्रस्तुत करना ही था।
'लोक' मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना और पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है। ऐसे लोक की अभिव्यक्ति में जो तत्त्व मिलते हैं वे लोकतत्त्व कहलाते हैं। अपभ्रंश साहित्य इन लोकतत्त्वों से तथा भावनाओं से भरा पड़ा है।
यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भारतीय वाङ्गमय में संस्कृत-साहित्य विविध काव्य-रूपों और विधाओं की दृष्टि से जितना समृद्ध है उसका परवर्ती अपभ्रंश साहित्य अपेक्षाकृत और भी अधिक सम्पन्न रहा है। कारण, प्रथम जहाँ संस्कृत साहित्य काव्यशास्त्रीय विधाओं का ही अनुसरण-अनुकरण करता रहा है वहाँ अपभ्रंश की लोकानुरागिनी साहित्यपरम्परा ने एक पग और अग्रसर होकर लोक-साहित्य तथा लोक-शास्त्र की अनगिन अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त व्यंजना-शैलियों को अपनाकर सचमुच नूतन काव्य-संसार ही रचा डाला।
भारतीय लोक-जीवन में 'फागु' शब्द 'फागुन' या 'फाल्गुन' महीने से जुड़ा है और इसी महीने में बसन्त ऋतु की मादकता तथा मस्ती मानव एवं मानवेतर प्रकृति में अवलोकनीय होती है। बाहर और भीतर का उल्लास सहज सौन्दर्य की सृष्टि में सक्षम होता है। तभी तो जड़ प्रकृति रंग-बिरंगे-बहुरंगे परिधान में मुस्कुराती-लुभाती है और मनुष्य निस्पृह भाव से नाचता-गाता है। अपभ्रंश की यह काव्य-विधा अपने नाम के अनुरूप इस वैशिष्ट्यसे परिपूर्ण है। अत: कहा जा सकता है कि ये फागु-काव्य अपने प्रारंभ में नृत्य करते हुए गाये जाते होंगे, जैसाकि अपभ्रंश के जैन-मुनियों द्वारा ही प्रणीत 'रास' नामधारी काव्यों के सम्बन्ध में भी मिलता है।
लोक-जीवन में उद्भूत इन फागु-काव्यों में जहाँ बसन्त के मादक और उद्दीपनकारी परिवेश में श्रृंगार रस के संयोग एवं वियोग पक्ष का भरपूर चित्रण होता है वहाँ जैन मुनियों द्वारा प्रणीत इन फाग-काव्यों में भंगार का चमत्कार तो प्रदर्शित किया ही जाता है.किन्त अन्त की ओर बढ़ते
ए उनमें एक नया मोड उभरने लगता है: भंगार का स्थान शान्त तथा निर्वेद लेने लगते हैं। सांसारिक काम के ऊपर सात्विक वैराग्य की यह विजय ही इन जैन फागु-काव्यों का मूल उद्देश्य है। अपभ्रंश के फाग-काव्य आकार में कहीं बडे और कहीं छोटे होने पर भी उद्देश्य की प्रकृति के साथ मानव-मन की भावात्मक एकता एवं उछाह को व्यंजित करने में नितान्त सक्षम
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