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अपभ्रंश-भारती 5-6
चंचल चित्त को निश्चल करने पर ही राम-रसायन का पान किया जा सकता है। एक अन्यत्र पद में कबीर मन को संबोधित करते हुए कहते हैं - हे मन ! तू क्यों व्यर्थ भ्रमण करता फिरता है ? तू विषयानन्दों में संलिप्त है फिर भी संतोष नहीं। तृष्णाओं के पीछे बावला बना हुआ फिरता है। मनुष्य जहाँ भी पग बढ़ाता है उसे मोह-माया का बंधन जकड़ लेता है। इसलिए कबीर ने मन के अनुसार न चलकर उसे वश में करने की सलाह दी है -
मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक । जो मन पर असवार हैं, ते साधु कोउ एक ॥ कबीर मन पंखी भया, बहुतक चड्या अकास ।
उहाँ ही तै गिरि पड्या, मन माया के पास ॥8 स्वपर-भेदविज्ञान का मुक्ति पथ में अनुपम महत्त्व है। एक दोहे में मुनि रामसिंह कहते हैं कि जिसने अपनी देह से परमार्थ को भिन्न नहीं माना वह अंधा दूसरे अंधों को कैसे मार्ग दिखा सकता है
भिण्णउ जेहिं ण जाणियउ णिय देहहं परमत्थु ।
सो अंधउ अवरहं अंधयह किम दरिसावइ पंथु ॥" इस भेदविज्ञान के पाने पर साधक का मन परमेश्वर से मिल जाता है और परमेश्वर मन से। दोनों के समरस हो जाने पर कवि को यह समस्या हो गई कि वह किसकी पूजा करे -
मणु मिलियउ परमेसरहो, परमेसरु जि मणस्स ।
विण्णि वि समरसि हुइ रहिय पुज चडावउं कस्स ॥१० एक अन्य दोहे में भी वे कहते हैं कि - हे जिनवर ! जब तक तुझे नमस्कार किया तब तक अपनी देह के भीतर ही तुझे न जाना। यदिदेह के भीतर ही तझे जान लिया तब कौन किसको नमन करे ? अतः उनका कहना है कि ज्ञानमय आत्मा के अतिरिक्त और भाव पराया है। उसे छोड़कर हे जीव ! तू शुद्ध स्वभाव का ध्यान कर। 42 इसी सन्दर्भ में जोइये जोगी, सुण्णं (शून्य) आदि शब्द भी द्रष्टव्य हैं जिन्हें उत्तरवर्ती संत कबीर ने भी अपनाया। मुनि रामसिंह की भाँति कबीर ने भी आत्मा-परमात्मा के इस मिलन को समरसता कहा है। उन्होंने इस सामरस्य भाव को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है -
मेरा मन सुमरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहिं ।
अब मन रामहि ह्वै रहा, सीस नवावी काहि । मुनि रामसिंह के दोहे के समान ही एक अन्य दोहे में कबीर ने परमात्मा से समरस होने का भाव व्यक्त किया है -
मन लागा उन मन साँ, उन मनहिं विलग । लूण बिलगा पाणियां, पांणि लूंण विलग 14