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________________ 22 अपभ्रंश-भारती 5-6 है। उन्होंने ज्ञानतिलिंग (णाणति डिक्की) को सीखने की सलाह दी जो प्रज्वलित होने पर पुण्य और पाप को क्षणमात्र में जला देती है। सभी कोई सिद्धत्व के लिए तड़फड़ाता है, पर सिद्धत्व चित्त के निर्मल होने से ही मिल सकता है। इसी संदर्भ में मात्र ज्ञान की निरर्थकता को सिद्ध करते हुए कहा गया है कि - हे पंडित, तूने कण को छोड़, तुष को कूटा है, तू ग्रंथ और उसके अर्थ में संतुष्ट है किन्तु परमार्थ को नहीं जानता इसलिए तू मूर्ख है। बहुत पढ़ा जिससे तालु सूख गया पर मूर्ख ही रहा, उस एक ही अक्षर को पढ़ जिससे शिवपुरी को प्राप्त किया जा सके। श्रुतियों का अंत नहीं है, काल थोड़ा और हम दुर्बुद्धि हैं इसलिए" केवल वही सीखना चाहिए जिससे जनम-मरण का क्षय कर सकें। कबीर ने भी चित्तशुद्धि पर जोर देते हुए बाह्याडम्बरों को व्यर्थ माना है। मात्र मूर्तिपूजा करनेवालों और मूंड मुंडानेवालों पर कटु प्रहार किया है - पाहन पूजै हरि मिले तो मैं पूजू पहार । ता” या चाकी भली, पीस खाय संसार ॥ मूंड मुंडाये हरि मिलैं, सब कोई लेय मुंडाय । बार-बार के मूड तें भेड़ न बैकुंठ जाय ॥ ऊपरी मन से माला फेरनेवालों और कोरे अक्षरज्ञानियों की भी उन्होंने अच्छी खबर ली है और परमात्म-चिंतन को ही मुनि रामसिंह के समान सर्वोपरि माना है - कौन विचार करत हो पूजा । आतम राम अवर नहीं दूजा। परमात्म जौ तत्त विचार । कहि कबीर ताकै बलिहारे ॥ साधक कवि मुनि रामसिंह ने इस सन्दर्भ में मन की स्थिति पर भी अच्छा प्रकाश डाला है। उन्होंने मन को 'करभ' की उपमा देकर कहा कि - हे मन, तू इन्द्रिय-विषयों के सुख से रति मत कर। जिनसे निरंतर सुख नहीं मिल सकता उसे क्षणमात्र में छोड़। न तोष कर, न रोष कर, न क्रोध कर। क्रोध से धर्म का नाश होता है और धर्म नष्ट होने से नरक गति होती है। इस प्रकार मनुष्य-जन्म व्यर्थ चला जाता है। साधना में मन की शक्ति अचिन्त्य है। वह संसार के बंध और मोक्ष दोनों का कारण होता है इसलिए मुनि रामसिंह ने मन की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि षट्दर्शन के धंधे में पड़कर मन की भ्रांति ना मिटी। एक देव के छह भेद किये अर्थात् षट्दर्शन का लक्ष्य एक ही है उनमें जो विरोध मानता है वह भ्रांति में है इससे उसका कल्याण नहीं हो सकता। कबीर ने भी मन और माया के संबंध को अविच्छिन्न कहकर उसे सर्वत्र दुःख और पीड़ा का कारण कहा है - मन पांचौ के वसि परा, मन के वस नहिं पांच । जिस देखू तित दौ लगि, जित आखू तित आंच ॥6
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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