________________
अपभ्रंश-भारती 5-6
21
मूढा जोवइ देवलई लोयहि जाइं कियाई । देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहिं सिउ संतु ठियाइं ॥ 180॥ देहादेवलि सिउ वसइ तुहं देवलई णिएहि ।
हासउ महु मणि अस्थि इहु सिद्धे भिक्ख भमेहि ॥ 1860" मुनि रामसिंह ने माया-जालुतथा मोह18 शब्दों का प्रयोग किया है जिसे संतों ने उसी रूप में उनसे उधार ले लिया। शरीर की नश्वरता", मिथ्यात्व (मिच्छणादिछी)29, मित्थन्तिय और मोहिय आदि तत्त्व कबीर आदि संतों के मायादर्शन का स्मरण कराते हैं।
सभी संतों ने गुरु के महत्त्व को सर्वोपरि माना है। इन सबके पूर्व रामसिंह ने गुरु की महिमा इतनी अधिक स्वीकार की है कि अपने ग्रंथ का प्रारम्भ ही गुरु की वंदना से किया है और उसे स्व-पर-प्रकाशक, दिनकर, हिमकिरण, दीप और देव जैसा माना है -
गुरु दिणयरु गुरु हिमकरणु गुरु दीवउ गुरु देउ ।
अप्पा परहं परपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥1॥ गुरु के प्रसाद से ही देह के देव को जाना जा सकता है अन्यथा मिथ्यादृष्टि जीव कुतीर्थों का परिभ्रमण ही करते रहते। इसलिए कवि ने सत्संगति को महत्त्व देते हुए कहा है कि विष वा विषधर अच्छे हैं, अग्नि बेहतर है, वनवास का सेवन बेहतर है किन्तु मिथ्यात्वियों की संगति अच्छी नहीं
मुनि रामसिंह की भाँति कबीर ने "बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविन्द दियो दिखाय" कहकर गुरु की अनंत महिमा का गुणगान और सत्संगति को सर्वोपरि माना है -
कबिरा संगति साधु की हरै और की व्याधि ।
संगति भई असाधु की आठों पहर उपाधि ॥5 साधकों ने साधना की सफलता के लिए चित्तशुद्धि को आवश्यक माना है। कबीर से पूर्व मुनि रामसिंह ने बाह्य क्रियाएं करनेवाले योगियों को फटकारा है और अपनी आत्मा को धोखा देनेवाला कहा है। चित्तशुद्धि बिना मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि जब आभ्यंतर चित्त ही मलिन है तब बाह्य तप करने का क्या तात्पर्य (61वां दोहा) ! यदि चित्त को न तोड़ा तो सिर मुंडाने का क्या मतलब ! चित्त का मुंडन करनेवाला ही संसार का खंडन करता है -
मुंडिय मुंडिय मुंडिया। सिरु मुंडिय चित्तु ण मुंडिया ।
चित्तहं मुंडणु जिं कियउ । संसारहं खंडणु तिं कियउ ॥26 बाह्याचार और मिथ्यात्व क्रियाओं को व्यर्थ मानते हुए उन्होंने आगे कहा कि हे मूर्ख ! तूने तीर्थ से तीर्थ भ्रमण किया और अपने चमड़े को जल से धो लिया पर तू मन को, जो पापरूपी मल से मैला है, किस प्रकार धोयेगा ? 27 इसीलिए उन्हें चित्तशुद्धि के बिना ज्ञान भी व्यर्थ लगता