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अपभ्रंश-भारती 5-6
उन्होंने उसके अनन्त नाम दिये हैं - "अपरम्पार का नाउं अनंत" राम, रहीम, खुदा, खालिक, केशव, करीम, बीठलुराउ, सत् सत्नाम अपरम्पार, अलख निरंजन, पुरुषोत्तम, निर्गुण, निराकार, हरि, मोहन आदि। साथ ही कबीर उस परमात्मा या ब्रह्म को"वरन् विवरजिन है रया, नॉ सो स्याम ने सेत" मानते हैं और वह प्रत्येक घट (शरीर) में व्याप्त है परन्तु अज्ञानवश लोग ब्रह्म की खोज सहस्रों मील दूर स्थित मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर आदि तीर्थों में करते हैं। उन्हें दुःख और आश्चर्य होता है कि अपने भीतर विद्यमान आत्मा-परमात्मा को कोई नहीं देखता -
कस्तूरी कुंडली वसै, मृग ढूँढै बन माँहि ।
ऐसे घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिं ॥१० कबीर की आत्मा-परमात्मा संबंधी लगभग सभी मान्यताएं उनके पूर्वकालीन मुनि रामसिंह से काफी अंशों में मिलती-जुलती हैं। संत और निरंजणु शब्दों को कवि ने अनेक प्रकार से व्याख्याथित किया है। कहीं उसे शिवरूप माना है और कहीं आत्मा के विशुद्ध परमानंद, नित्य, निरामय, ज्ञानमय-रूप में व्यक्त किया है और कहीं परमात्मा-रूप में। वह शिव वर्ण-विहीन और ज्ञानमय है, ऐसे ही सत् स्वरूप में हमारा अनुराग होना चाहिए -
वण्णविहणउ णाणमउ जो भावइ सब्भाउ ।
संत णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ ॥2 अन्यत्र दोहों में भी उन्होंने निरजंन शब्द को परमतत्व के रूप में ही लिया है। साधक कवि ने सकल और निकल रूप परमात्मा को कबीर आदि संतों की भांति 'सगुणी' और 'णिग्गुणउ' शब्दों से चित्रित किया है। परन्तु उसमें काला, गोरा, छोटा, बड़ा, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जैसा भेद करना मढ़ता है। बस, निर्मल होकर परम निरंजन को जानने का प्रयास करना चाहिए।
दाम्पत्यमूलक पुनीत आदर्शप्रेम को आत्मा-परमात्मा के बीच कल्पित करने का श्रेय मुनि रामसिंह को दिया जा सकता है। उन्होंने परमात्मा को प्रिय और स्वयं को पत्नी-रूप में चित्रित किया है। इस संदर्भ में पाणिवइ5 (प्राणपति) जैसे शब्द उल्लेखनीय हैं -
णिल्लक्खणु इत्थीबाहिरउ अकुलीणउ महु मणि ठियउ । तसु कारणि आणी माहू जेण गवंगउ संठियउ ॥99॥ हउं सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिल्लक्खणु णीसंगु ।
एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहि अंगु ॥ 100॥ यह दाम्पत्यमूलक प्रेमभावना मुनि रामसिंह के पूर्ववर्ती साहित्य में मुझे देखने को नहीं मिली। उत्तरकालीन कबीर आदि संतों ने इसी दाम्पत्यमूलक प्रेम भावना को और गहराई से अपनाया। चिदानंद आत्मा के निर्गुण स्वरूप का वर्णन जिस प्रकार से मुनि रामसिंह ने किया है उसका प्रभाव भी कबीर पर दिखाई पड़ता है। अज्ञानी लोग देहरूपी देवालय में शिव के निवास को न जानकर उसे देवालयों और तीर्थों-तीर्थों में ढूंढते हैं -