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अपभ्रंश-भारती 5-6
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को दूरकर परमात्मपद की प्राप्ति में सचेष्ट हो। मुनि रामसिंह ने अनुभवजन्य ज्ञान को सर्वोपरि मानकर उसे शास्त्रज्ञान से ऊँचा स्थान दिया। मात्र शास्त्रज्ञान की निरर्थकता को सिद्ध करते हुए उन्होंने कहा - हे पंडित, तूने कण को छोड़ तुष को कूटा है, तू ग्रंथ और उसके अर्थ में संतुष्ट है किन्तु परमार्थ को नहीं जानता इसलिए तू मूर्ख है। आगे वे संसारी जीव को सलाह देते हैं - तुमने बहुत पढ़ा जिससे तालु सूख गया पर मूर्ख ही बना रहा। उस एक ही अक्षर को पढ़ जिससे शिवपुरी तक पहुँचा जा सके -
बहुयईं पढियई मूढ पर तालु सुक्कड़ जेण ।
एक्कु जि अक्खरु तं पढहु सिवपुरी गम्महिं जेण ।' एक अन्यत्र दोहे में भी वे आत्मज्ञान को सर्वोपरि बताते हुए कहते हैं - जिसके मन में ज्ञान विस्फुरित नहीं हुआ वह मुनि सकल शास्त्रों को जानते हुए भी, कर्मों के कारणों का बंध करता हुआ, सुख नहीं पाता -
जसु मणि णाणु ण विप्फुरइ कम्महं हेउ करंतु ।
सो मुणि पावइ सुक्खु ण वि सयलई सत्थ मुणंतु ।। 24॥ · मुनि रामसिंह की भांति अध्यात्म-रसिक कबीर ने भी आत्मानुभव को श्रेष्ठ माना है। कई स्थलों पर तो उन्होंने डाँट-फटकारवाली शैली को अपनाते हुए ऐसे कोरे अक्षरज्ञानियों और वेदपाठियों को फटकारा भी है -
पढि-पढि पंडित वेद बखाण, भीतरि हूती बसत न जाण। अर्थात् पंडितलोग पढ़-पढ़कर वेदज्ञान की चर्चा तो करते हैं किन्तु स्वयं में स्थित बड़े भारी तत्त्व ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानते। एक अन्यत्र दोहे में उन्होंने मुनि रामसिंह के भावों को ही अपने शब्दों में व्यक्त किया है -
पोथी पढ़ि-प्रढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई।
ऐक आखर पीव का, पढ़े सु पंडित होई ।' अन्य संतों ने भी किसी धर्मग्रंथ की प्रामाणिकता न मानकर स्वानुभूति को विशेष महत्त्व दिया है मुनि रामसिंह के ही समान कबीर ने इसी को सच्चा आनंद कहाँ है - "आपहु आपु विचारिये, तबकेता होय आनंद रे।" कबीर का ब्रह्म सर्वव्यापक है। उन्होंने प्रत्येक आत्मा के अन्दर परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है जिसे वह मिथ्यात्व का अविद्या माया के कारण जान नहीं पाता सद्गुरु की प्रेरणा से मिथ्यात्व या अविद्या के दूर होते ही वह समझने लगता है कि 'जीव ब्रह्म नहिं भिन्न है' अर्थात् 'अहम् ब्रह्मास्मि'। ब्रह्म और जीव के इस अभेदत्व को उन्होंने एक दोहे में सुन्दर और स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है - .
जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतरि बाहरि पानी फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तत कह्यो गियानी ।