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अपभ्रंश-भारती 5-6
इस प्रकार मुनि रामसिंह के पाहुडदोहा को संत परम्परा की आधारशिला माना जा सकता है। संत-साहित्य की पृष्ठभूमि के निर्माण में रामसिंह के चिंतन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है । यह आश्चर्य का विषय है कि हिन्दी के विद्वानों ने आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य को मात्र धार्मिक साहित्य मानकर उसे उपेक्षित कर दिया जिससे हिन्दी संत परम्परा के तुलनात्मक अध्ययन का एक कोना अछूता सा रह गया। समूची संत परम्परा भले ही किसी-न-किसी धर्म से सम्बद्ध रही हो पर उनके चिंतन के विषय बहुत अधिक पृथक नहीं रहे। आत्मा, परमात्मा, कर्म-पाखंड, सांसारिक माया, सद्गुरु-सत्संग आदि जैसे विषयों पर सभी ने अपनी कलम चलायी है। जैन धर्म और दर्शन प्रारंभ से ही प्रगतिवादी, तार्किक और वैज्ञानिक रहा है और उसने इन सारे विषयों पर अनेकान्त-दृष्टि से विचार-मंथन किया है। आदिकाल और मध्यकाल में जब ज्ञान का स्थान भक्ति ने ले लिया तब मूढ़ताओं का प्रचार अधिक हुआ। जैन संतों ने इनका पुरजोर खंडन किया जो योगीन्दु, मुनि रामसिंह आदि अपभ्रंश कवियों के साहित्य में भली-भाँति देखा जा सकता है। कबीर साहित्य का गहन अध्ययन करने पर अध्येता को यह स्पष्ट आभास हो जायेगा कि कबीर ने इन हिन्दी जैन संतों को अच्छी तरह से सुना-समझा होगा इसलिए जैन संत साहित्य के परिप्रेक्ष्य में यदि कबीर को पढ़ा जाये तो संत-साहित्य की दार्शनिक पृष्ठभूमि में कदाचित् एक नया अध्याय जुड़ सकता है।
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1. पाहुडदोहा, संपादक, डॉ. हीरालाल जैन, संपादकीय वक्तव्य ।
2. कतिपय विद्वान् आचार्य कुन्दकुन्द का समय चतुर्थ शती मानते हैं जो सही नहीं लगता । भाषा और विषय के पर्यलोचन पर उनका समय ईसवी प्रथम सदी के आसपास ही ठहरता है ।
3. पाहुडदोहा, 85-881
4. वही, 971
5. पाहुडदोहा, 24, और भी देखिए दोहा 87, 98 1
6. कबीर ग्रंथावली, पृ. 342 ।
7. कबीर ग्रंथावली, पृ. 96, पद 23 ।
8. वही, पृ. 2021
9. कबीर ग्रंथावली, रमैणी, बारह पदी, पृ. 242-243 ।
10. वही, पृ. 297, और भी देखिए पृ. 217 और 477। कबीर दुनिया दे हुरे, सीस नवांवण जाई । हिरदा भीतर हरि बसै, तूं ताही हरि में तन है, तन में हरि है, है सुनि नाहीं सोय ।
सौ ल्यौ लाई ॥
11. पाहुडदोहा, 38, 61, 94, 124। 12. पाहुडदोहा, 381