________________
अपभ्रंश-भारती 5-6
हिन्दी का अपभ्रंश साहित्य इन लोकतत्त्वों तथा भावनाओं से भरा पड़ा है। अपनी इस टिप्पणी में अधिक विस्तार को महत्त्व न देते हुए इतना कहना चाहूँगा (अगर तुलनात्मक दष्टिकोण से देखा जायगा तो चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी माना, हजारीप्रसादजी ने आदिकाल के अपने साहित्यिक विवेचन में अवसरानुकूल तथ्य दिये - कभी अपभ्रंश को गुलेरीजी के अनुसार स्वीकार किया तो कभी स्वतन्त्र रूप देकर, कभी अपभ्रंश को लोकभाषा माना तो कभी उसका विकास-सूत्र कहीं से जोड़ दिया इसकी तार्किक विवेचना रामविलास शर्मा ने अपने हिन्दी जाति का साहित्य नामक पुस्तक में 'देशी भाषा और अपभ्रंश' शीर्षक से किया है। लेकिन यहाँ पर मुझे भाषाई विवाद में नहीं पड़ना है क्योंकि यह एक अलग विषय हो सकता है, यहाँ पर मेरा अभीष्ट यह रहा है कि यदि अपभ्रंश साहित्य की समृद्ध परम्परा की छाया हम अपने उत्तरवर्ती साहित्य पर देख सकते हैं, कबीर और रीतिकाल तक प्रचारित-प्रसारित कर सकते हैं, परमालरासो को आल्ह-खण्ड का परिष्कृत रूप बता सकते हैं, जो आल्ह-खण्ड आज भी लोकमानस की मिथकीय यात्रा को सीधे अतीत से जोड़ देती है तो कोई कारण नहीं दिखाई देता कि हम यह कह सकें कि हमारा लोकपक्ष अपभ्रंश-काव्य परम्परा में नहीं था। इसे हजारी प्रसादजी/माताप्रसाद गुप्तजी से लेकर रामस्वरूप चतुर्वेदी तक किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं। तब निश्चित तौर पर हम अपनी लोक परम्पराओं, संवेदनाओं तथा अनुभूतियों का साहित्यिक सूत्र अपभ्रंश से जोड़कर देख सकते हैं) कि शोधों के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस पर विशेष अध्ययन की आवश्यकता है। हिन्दी के अध्येताओं का ध्यान अपभ्रंश की समृद्ध लोक-परम्परा की ओर जाय यह टिप्पणी उस दिशा में एक अनधिकारिक प्रयास है। अस्तु !
1. हिन्दी साहित्य का अतीत, पृ. 139। 2. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 311 3. लोक संस्कृति और इतिहास, बद्रीनारायण, कथ्यरूप इतिहास पुस्तिका, पृ. 9। 4. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 65। 5. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 46। 6. हिन्दी साहित्य कोश, भाग एक, पृष्ठ 747 ।
सहायक सम्पादक, सरयूधारा अजय प्रेस, नन्दना प. बरहज बाजार देवरिया, उ.प्र.-274601