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अपभ्रंश-भारती 5-6
णहु रहइ बुहा कुकवित्त रेसि अबुहत्तणि अबुहह णहु पवेसि । जिण मक्ख ण पंडिय मज्झयार
तिह पुरउ पढिब्बउ सब्बवार । कहना न होगा कि यह बीचवाला वर्ग ही सम की भावना से साहित्य की संवेदना को ग्रहण करता है, और यही कारण है कि अपभ्रंश की रचनाधर्मिता सदियों के बाद भी अपनी संवेदनधर्मिता, ताजगी एवं सन्दर्भो के कारण नित नूतन प्रतीत होती है। एक उदाहरण खुमाणरासो का हम देखें तो यह पता चलता है कि इन रचनाकारों की दृष्टि कितनी सूक्ष्मता से किसी बात को मार्मिकता प्रदान करने में परम्परा का आश्रय ग्रहण करती थी। नायिका की विकलता का एक रूप यह भी है जो परम्परा के रूप में आज भी जीवित है, देखें - .
पिउ चित्तौड़ न आविऊ, सावण पहिली तीज ।
जोवै बाट बिरहिणी खिण-खिण अणवै खीज ॥ __ मनोदशाओं का यह स्वाभाविक चित्रण बिना लोक-संस्पर्श के सम्भव नहीं था।आदिकालीन जीवन का संस्पर्श अपभ्रंश की तथाकथित ऐतिहासिक या रासो कृतियों में ही नहीं वरन् उस समय के सिद्धों और नाथों की वाणियों में भी तत्कालीन अभिव्यक्ति का ठेठ रूप दिखायी पड़ता है। आज तो हिन्दी के बहुत से आलोचक रीतिकाल और भक्तिकाल की रचनाओं का बीजसन्दर्भ आदिकाल की अपभ्रंश रचनाओं में देखने लगे हैं, मैं नहीं समझता कि यह 'लोक' के मिथक का कमाल है वरन मैं तो यह मानता हूँ कि ऐसा बहुत कुछ मायने में था भी - यह गोरखनाथ की वाणी है जो लोकमन की अपनी विशेषता है, यों उदाहरण के लिए पचीसों सिद्धों की वाणियों को लिया जा सकता है जो परवर्ती साहित्य से लेकर उत्तरवर्ती साहित्य तक सम्बन्धसेतु का कार्य करते रहे। गोरखनाथ का यह उदाहरण देखें -
हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरे धरिबा पाँव
गरब न करिबा, सहअँ रहिबा, भणंत गोरख राँव ॥ यह सहज रहने का अपना तरीका है जो अपभ्रंश के रचनाकारों के पास था। लोक बराबर सहज रहा करता है।
यह सम्भव है कि बार-बार 'लोक' व्यवहृत करने से कुछ संदेह उत्पन्न हों कि लोक आखिर है क्या ? तो मैं साहित्य में लोक की उपस्थिति के लिए उन तत्वों की ओर संकेत करना चाहता हूँ जिनके लिए कहा गया है - "लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना और पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है। ऐसे लोक की अभिव्यक्ति में जो तत्त्व मिलते हैं वे लोकतत्त्व कहलाते हैं।
बा पाव