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________________ अपभ्रंश - भारती 5-6 एक की पहचान से साहित्य की श्रेष्ठता पहचानी जाती है तो वह लोक है और हमारा सम्पूर्ण साहित्य कहीं न कहीं लोक से जाकर जुड़ता है चाहे वह संस्कृत का आदर्श हो या अपभ्रंश की ऐहिकता, लोक की उदारता से ही साहित्य की मूल संवेदना जुड़ी होती है।' अपभ्रंश की रचनाओं के सन्दर्भ अधिकतर लोक से जुड़े हुए हैं। मेरी समझ से इसका एक बड़ा कारण रहा होगा युगीन संवेदना की बेबाक प्रस्तुति । बीसलदेव की नायिका राजमती जब यह कहती है कि - हे विधाता (महेश) ! स्त्री - जन्म क्यों दिया ? अर्थात् अब मत देना, हाँ और कुछ भी बना देना लेकिन स्त्री जन्म । आज की संवेदना से जब हम इन पंक्तियों को तौलते हैं तो क्या ऐसा नहीं लगता कि ये रचनाकार हमारी संवेदना के बहुत करीब थे। आज इक्कीसवीं सदी की अगवानी की जा रही है और यह संवेदना अपभ्रंश के एक कवि की है, देखें अस्त्रीय जनम कांई दीधउ महेस । अवर जनम थारई घणा रे नटेस । राणि न सिरजीय धउलीय गाइ । काली कोइली । वणखण्ड हउं बइसती अबां नइ चंपा की डाल । - यह एक रानी की व्यथा है जो बीसलदेव की नायिका है। बाद के अनेक ग्रन्थों में इसकी उपस्थिति हम महसूस कर सकते हैं। इतना ही नहीं बीसलदेव रासो का जागरूक रचनाकार लोक से किस कदर जुड़ा है यह मात्र वियोग और संयोग के वर्णनों को देखकर नहीं, बल्कि उसके इस कथन से लगाया जा सकता है दव का दाधा हो कूपल लेइ जीभ का दाधा न पाल्हवइ ॥ 3 - दावाग्नि में जले वृक्ष द्वारा नया रूप लेना सम्भव है। वह फिर हरा-भरा हो सकता है किन्तु कठोर वचनों से जला व्यक्ति कभी भी हरा नहीं हो सकता, प्रसन्न नहीं हो सकता । यहाँ लोक की गहराई के साथ-साथ परवर्ती कवियों द्वारा इसके अपनाने की प्रक्रिया भी पायी जा सकती है। कठोर वचनों की बात तुलसी से लेकर कबीर सभी ने की है, यह एक छोटा-सा उदाहरण है । - भी लोक-साहित्य का बहुत-सा अंश प्रक्षिप्त होते-होते विवादास्पद हो जाता है। यह किसी समृद्ध साहित्य या विशिष्ट रचनाकार के साथ उसके न रहने पर हुआ करता है। फलतः साहित्येतिहासकार रचनाकार के सन्दर्भ में तो उसकी बहुआयामी संवेदना और प्रतिभा का दर्शन कर लेते हैं लेकिन जब किसी समृद्ध साहित्य भाषा के ग्रन्थों के साथ प्रक्षिप्त जुड़ते हैं तो ग्रन्थ अप्रामाणिक या विवादास्पद बताये जाते हैं। अपभ्रंश का साहित्य इसका जीवन्त उदाहरण माना गा सकता है। यद्यपि अपभ्रंश के रचनाकारों के पास अनुभव की विशाल राशि थी, वे जन-जीवन से जुड़े थे, फिर भी वे यह मानते थे कि जो लोग पण्डित हैं, वे तो मेरे इस कुकाव्य पर ध्यान देंगे ही नहीं और जो मूर्ख हैं वे अपनी मूर्खता के कारण समझ नहीं सकेंगे अतः जो बीचवाले अर्थात न पण्डित हैं, न मूर्ख, वे हमारे काव्य के चाहनेवाले होंगे
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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