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अपभ्रंश-भारती 5-6
का प्रदर्शन। जहाँ कोई लोक-रक्षा मूलक हेतु न हो वहाँ कल्पित हेतु और लोक-रक्षण के स्थान पर लोक-रंजन को ही लक्ष्य करके कवि चलता है ... काव्य लोक से बद्ध था।"
कहना न होगा कि अपभ्रंश के कवि लोक के मनोरंजन को ध्यान में रखते थे। इसके पीछे अपभ्रंश के कवियों की विवशता नहीं, युग एवं परिवेश की सामयिक माँग थी, जिसे रचनागत धरातल पर किसी भी सचेतस सजग रचनाकार को प्रस्तुत करना ही था। आज की आधुनिक मानसिकता की भाँति कोई लोक को निरक्षर या अविकसित कहकर उससे पीछे हटनेवाले बुद्धिजीवी भी अपभ्रंश के पास नहीं थे। आज रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे रचनाकार भी यह स्वीकार करते हैं - "हिन्दी का चरित्र, पहली बार ही बड़े मोहक रूप में भाषा और संवेदना के दोनों स्तरों पर 'पृथ्वीराज रासऊ' में निखरकर आया है।"
साहित्येतिहासकारों में इस पर विवाद हो सकता है कि पृथ्वीराज रासो लौकिकता व्यञ्जित कर सकता है, किन्तु वह लोकपरक नहीं है, यहाँ पर मैं विनम्रतापूर्वक यह निवेदन करना चाहूँगा कि आदिकालीन साहित्यिक सामग्री का अधिसंख्य (प्राकृत/अपभ्रंश) आज भी विवादित है, किन्तु आदिकाल के प्रखर अनुसंधित्सु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी शुक और शुकी के द्वारा कहे गये हिस्सों को प्रामाणिक मानने का आग्रह करते हैं ? क्यों ? यह तो मैं नहीं बता सकता किन्तु इतना अवश्य है कि तोता-मैना, शुक-शुकी आज भी आभिजात्य या 'एलीट' साहित्य द्वारा नहीं अपनाए गये, न अपनाए जा सकते हैं। लोकमानस में इनकी रागात्मकता स्वत:सिद्ध है। यह कितनी भ्रामक अवधारणा है कि योरोपीय इतिहास-लेखन में लोक संस्कृति का प्रयोग देखनेवाले भारत में इस दिशा में 'न के बराबर की पहल' के धारण के शिकार हैं, काश ! ऐसे लोग आदिकाल की साहित्यिक सामग्री को न सही गम्भीरतापूर्वक, सरसरी नज़र से ही देख लेते। रामस्वरूप चतुर्वेदी (हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास लिखते समय) जब यह लिखते हैं - "यों कुल मिलाकर ये रासो रचनाएं अभिनेय तो नहीं पर प्रदर्शनीय कला (परफोर्मिंग आर्ट) की श्रेणी में आ जाती हैं, जिनकी जड़ें लोक परम्परा में हैं, पर जो धीरे-धीरे शिष्ट काव्य के रूप में उग रही हैं।" तो यह स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का विकास लोक परम्परा से ही सम्बन्धित है। यों यह तो स्पष्ट है कि बिना लोक में रमे साहित्य की रचना वायवीय सन्दर्भो को ही आकार देगी, उसमें कहीं भी जीवन की गहरी और सच्ची संवेदना नहीं मिलेगी। ये उदाहरण पर्याप्त होंगे -
पय सक्करी सुभत्तौ, एकत्तौ कनय राय भोयंसी ।
कर कंसी गुज्जरीय, रब्बरियं नैव जीवंति ॥ - यदि दूध-शक्कर और भात मिलाकर (बड़े घरों की) लड़कियाँ राजभोग बनाती हैं तो (गरीब) गूजरी क्या कण-भूसीवाली राबड़ी (मट्टे की) से जीवन-निर्वाह न करें ?
लोक बराबर परम्परा के प्रवाह के साथ जुड़ता रहा है, आस्थाएँ इस प्रवाह में जुड़ी तो बही भी, डॉक्टर हरिश्चन्द्र मिश्र का मानना है कि साहित्य के मूल संवेदनात्मक आधारों में अगर किसी