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अपभ्रंश-भारती 5-6
रयणायरो व्व सोहायमाणु
दीवाण पहाणहिं दीवदीवे जंबू दुमलंछिए जंबुदीवे । वेढियलवणण्णववलयमाणे जोयणसयसहसपरिप्पमाणे । वित्थिण्णउ इह सिरि भरहछेत्तु गंगाणइसिंधु हिं विप्फुरंतुं । छक्खंडभूमिरयणहँ णिहाणु रयणायरो व्व सोहायमाणु । एत्थरिथ रवण्णउ अंगदेसु महिमहिलइँणं किउ दिव्ववेसु । जहिँ सरवरि उग्गय पंकयाइँ णं धरणिवयणि णयणुल्लयाई । जहिँ हालिणिरूवणिवद्धणेह संचल्लहिँ जक्ख ण दिव्वदेह । जहिँ बालहिँ रक्खिय सालिखेत्त मोहेविणु गीयएँ हरिणखंत । जहिं दक्खई भुंजिवि दुहु मुयंति थलकमलहि पंथिय सुह सुयंति । जहिँ सारणिसलिलि सरोयपंति अइरेहइ मेइणि णं हसति । पत्ता - तहिं देसि रवण्णई धणकणपुण्णई अत्थि णयरि सुमणोहरिय । जणणयणपियारी महियलि सारी चंपा णामई गुणभरिय ॥
करकंडचरिउ 1.3 - द्वीपों में प्रधान, द्वीपों के दीपक समान, जम्बू वृक्ष से लक्षित जम्बूद्वीप है, जो लवणसमुद्र से वलय के समान वेष्टित तथा प्रमाण में एक लाख योजन है। इस जम्बूद्वीप में विशाल श्री भरतक्षेत्र है, जो गंगा और सिन्धु नदियों से विस्फुरायमान है। वह छह खण्ड भूमिरूपी रत्नों का निधान होने से रत्नाकर के समान शोभायमान है। ऐसे इस भरत क्षेत्र में रमणीक अंग देश है, जैसे मानो पृथ्वी-महिला ने दिव्य वेष ही धारण किया हो। जहाँ के सरोवरों में कमल उग रहे हैं, मानो धरणी के मुख पर सुन्दर नयन ही हों। जहाँ किसान-स्त्रियों के रूप में स्नेहासक्त होकर दिव्य देहधारी यक्ष निश्चल हो गये हैं। जहाँ बालिकाएँ चरते हुए हरिणों के झुण्डों को अपने गीत से मोहित करके धान के खेतों की रक्षा कर लेती हैं। जहाँ पथिक दाख का भोजनकर अपने यात्रा के दुःख से मुक्त होते और स्थल कमलों पर सुख से सो जाते हैं। जहाँ की नहरों के पानी में कमलों की पंक्ति अति शोभायमान होती है, जैसे मानो मेदिनी हँस उठी हो। ऐसे धन-धान्य से पूर्ण उस रमणीक अंग देश में बड़ी मनोहर, जननयन-प्यारी, महीतल में श्रेष्ठ और गुणों से भरी हुई चम्पा नाम की नगरी है।
अनु. - डॉ. हीरालाल जैन