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अपभ्रंश-भारती-3-4
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प्रयोग, सभी अपभ्रंश साहित्य के जैन धर्माचार्यों और सिद्धों की आध्यात्मिक उपदेशात्मक प्रवृत्तियों से प्रभावित हैं। जैनों की खंडन-मंडनात्मक शैली और वज्रयानियों की उलटवासियाँ भी यहाँ प्राप्त होती हैं। कबीरदास पर अपभ्रंश का प्रभाव स्पष्टरूप से देखा जा सकता है -
दाढ़ी मूंछ मुड़ाय के, हुआ घोटम घोट।
मन को क्यों नहीं मूड़िये, जामे भरिया खोट॥ कुछ इसी प्रकार की बात अपभ्रंश के कवि रामसिंह ने भी 'पाहुडदोहा' में कही है -
मुंडिय मुंडिय मुंडिय सिर मुंडिउ चित्त ण मुंडिया।
चित्तह मुंडणु जि कियउ संसारहं खंडणु तिं कियउ॥ इस प्रकार दोनों ने ही मन की शुद्धि पर बल दिया है। इसी प्रकार का 'चित्तशोधन' प्रकरण में वज्रयानी सिद्ध आर्य देव का वचन है -
प्रतरन्नपि गंगायां नैव श्वा शुद्धिमर्हति। तस्साद्धर्मधियां पुंसा तीर्थस्नानं तु निष्फलम्॥ धर्मो यदि भवेत् स्नानात् कैवर्तानां कृतार्थता।
वक्तं दिवं प्रविष्टानां मत्स्यादीनां तु का कथा।' इस प्रकार के भाव आगे भी सन्तों के द्वारा जनता तक पहुँचाए जाते रहे। जिसका एक उदाहरण प्रस्तुत है -
गंगा के नहाए कहो को नरि तरिगे,
मछरी न तरी जाको पानी ही में घर है। कबीरदास ने जाति-पाति का खण्डन, गुरु की महत्ता, प्रेयसी-प्रियतम की भावना आदि को अपभ्रंश कवियों से ही ग्रहण किया है । इसके अतिरिक्त सन्तों ने जिन रूपकों का प्रयोग अपने काव्य में किया है, वे भी इन्हीं से लिये गये हैं।
लोकनायक महाकवि तुलसीदास के ग्रन्थ 'रामचरित मानस' पर भी अपभ्रंश काव्यों का प्रभाव स्पष्ट है। 'सन्देशरासक' और रामचरित मानस में प्रयुक्त कुछ छन्द तो एक दूसरे के अनुवाद प्रतीत होते हैं । उदाहरण के लिए हम सन्देशरासक की कुछ पंक्तियों को देख सकते हैं -
मह हिमयं रयण निही, महियं गुरु मंदरेण तं णिच्च।
उम्मूलियं असेसं, सुहरयणं कड़िढयं च तुह पिम्मे॥ अब रामचरित मानस का भी एक उदाहरण हम देख सकते हैं -
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढहीं भगति मधुरता जाहिं। इसी प्रकार से कृष्ण-भक्ति शाखा भी इसके प्रभाव से अछूती नहीं रही है। कृष्ण-भक्त कवियों ने जिन रूपकों और उपमाओं का प्रयोग किया है वे अपभ्रंश साहित्य से ही ग्रहण किये