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अपभ्रंश - भारती - 3-4
जनवरी - जुलाई - 1993
हिन्दी साहित्य पर अपभ्रंश का प्रभाव
- जोहरा अफजल
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सामान्यतः भारतीय भाषाओं के अन्तर्गत (इतिहास में) अपभ्रंश को 'अभीरों' की भाषा कहा जाता है। अपभ्रंश का अर्थ बिगड़ी हुई भाषा से भी लिया जाता है। ऐसा भी माना जाता रहा है कि पाँचवीं शती के आसपास अभीरों की एक जाति भारत में आ बसी थी । इस जाति का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। इन अभीरों ने यहाँ के समाज और भाषा को प्रभावित किया। इनकी भाषा में ग्रामीण शब्दों की प्रचुरता थी। आचार्य दण्डी ने अपने काव्यादर्श में लिखा है कि " काव्य में अभीरों की भाषा अपभ्रंश कही जाती है। अभीरों की यही अपभ्रंश कही जानेवाली ग्रामीणभाषा राजभाषा और साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हुई" आचार्य राजशेखर ने भी अपभ्रंश कवियों का उल्लेख करते हुए अपनी 'काव्य मीमांसा' में लिखा है कि 'राजसभा में अपभ्रंश के कवियों के बैठने का स्थान पश्चिम में होता था 1⁄2 इससे यह भी माना जा सकता है कि अपभ्रंश पश्चिमी प्रदेश की भाषा थी।
अपभ्रंश काव्य की स्थापना अधिकतर दोहा के रूप में हुई। इसका सबसे प्राचीन रूप जैनसाहित्य तथा सिद्ध-साहित्य में मिलता है। भाषा और विषय की दृष्टि से अपभ्रंश को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
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1. जैन धर्म से सम्बद्ध काव्य,
2. सिद्धों और नाथ पंथियों का साहित्य, 3. फुटकर ग्रन्थ, सन्देश रासक,
कीर्तिलता और कीर्तिपताका आदि ।