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अपभ्रंश-भारती - 3-4
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के विकास में जोइंदु की भाषा प्रमाण-स्वरूप प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण है। जिन देशी शब्दों का मूल अभी तक नहीं खोजा जा सका है, संभव है, उन्हें जोइंदु की अपभ्रंश की सहायता से खोजने में सफलता प्राप्त हो ।
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1. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, संरचनात्मक शैलीविज्ञान, दिल्ली, 1979, पृ. 130 1
2. विंचेस्टर, सम प्रिंसिपल्स ऑफ़ लिटरेरी क्रिटिसिज्म, न्यूयार्क, 1950, पृ. 231 में उद्धृत | 3. पाल वेलेरी, दि आर्ट ऑफ़ पोएट्री, अनु. डेनिस फोलियट, लंदन, 1958, पृ. 631 4. रेने वेलेक, ए हिस्ट्री ऑफ़ माडर्न क्रिटिसिज्म, भाग 2, लंदन, 1961, पृ. 401
5. वी. के गोकक, दि पोएटिक एप्रोच टू लैंग्वेज, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1952, पृ. 501
6. राजेंद्र वर्मा, साहित्य-समीक्षा के पाश्चात्य मानदंड, भोपाल, 1970, पृ. 951
7. सियाराम तिवारी, काव्यभाषा, मैकमिलन, 1976, पृ. 1-50 1
8. टी. एस. इलियट, दि म्यूज़िक ऑफ पोएट्री ऑन पोएट्री एंड पोएट्स, लंदन, 1965, पृ. 29।
9. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, शैलीविज्ञान और आलोचना की नई भूमिका, आगरा, 1972 । 10. को. फ़ेदिन, लेखन कौशल, (गोर्की, मयाकोव्स्की, तोलस्तोय, फ़ेदिन : लेखनकला और रचनाकौशल, हिंदी - अनु., अली अशरफ़ ) प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1977, पृ. 3051 11. देवकुमार जैन, जोइन्दु की भाषा, अप्रकाशित शोध-प्रबंध ।
आधार-ग्रंथ, परमात्मप्रकाश एवं योगसार, जोइंदु, संपादक - ए. एन. उपाध्ये, बंबई, 1960।'
डॉ. देवकुमार जैन
सहायक प्राध्यापक
शासकीय छत्तीसगढ़ महाविद्यालय रायपुर, म.प्र.
डॉ. चितरंजनकर रीडर,
भाषाविज्ञान- अध्ययन शाला
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
रायपुर, म.प्र.