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अपभ्रंश-भारती-3-4
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जरा
भव सागर
2. 105 यौवन द्रह
2.117 उद्रेहिका
2. 133 इंद्रिय करभक
2. 136 विषय वन
2. 136 परमसमाधि महासर
2. 189 रूपकों के अतिरिक्त जोइंदु ने उपमाओं का चयन भी अत्यंत सूझ-बूझ के साथ किया है, यथा - कर्म वज्र
1.78 समभाव नाव
2.111 उन्होंने स्वतंत्र रूप से ऐसे प्रतीक का प्रयोग किया है, जिससे अभीष्टार्थ की समग्र प्रतीति होती है, यथा -
जीवह लक्खणु जिणवरहि भासिउ दंसण-णाणु। तेण ण किज्जइ भेउ तहँ जइ मणि जाउ विहाणु॥
2.98 यहाँ 'विहाणु' (विभात - सवेरा) 'ज्ञान' का प्रतीक है, जो सहज रूप से अज्ञानांधकार के निवारण की प्रक्रिया को व्यक्त करता है। __जोइंदु ने अपने काव्य में कतिपय ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो अपभ्रंश-साहित्य में सर्वथा नवीन तो हैं ही, विलक्षण भी हैं। कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं मुणि धवला
योग. 68 ___ मुनि अपने स्वभाव, आचरण, आदि से शुद्ध होते हैं। इस भाव को ज्ञापित करने के लिए जोइंदु ने यह प्रयोग किया है। धवल' के सहप्रयोग से 'मुनि' के अर्थ में कई गुनी वृद्धि हो जाती है। मुनि सांसारिक कालुष्य से कभी प्रभावित नहीं होते; उनके साहचर्य से कालुष्ययुक्त मनुष्य धवलता को प्राप्त करते हैं; वे तन और मन, अंत:करण से निष्कलुष होते हैं; वे परमात्मा के चिरंतन दिव्य प्रकाश से प्रकाशित होते हैं; इत्यादि कितने ही अर्थ 'मुनिधवल' से व्यक्त होते हैं। इसी प्रकार, वाक्य-स्तर पर भी उन्होंने नवीन अर्थ की उद्भावना की है - एक्कलउ जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि।
(योग.,70) यहाँ 'स्व-पर' के भेद को बहुत ही कलात्मक ढंग से दूर करने का प्रयास उल्लेखनीय है। यदि मानव अकेला ही है, तो क्या अपना और क्या पराया?
निष्कर्ष यह है कि जोइंदु की अपभ्रंश तत्कालीन एवं तत्क्षेत्रीय लोकभाषा का उत्कृष्ट प्रतिदर्श है, जिसका प्रभाव परवर्ती अपभ्रंश-काव्यों में स्पष्टतः देखा जा सकता है। साथ ही,