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अपभ्रंश-भारती-3-4
ही ध्वनि में आँखों के आगे चित्रित कर सके, जो झंकार में चित्र और चित्र में झंकार हो, जिनका भावसंगीत विद्युत-धारा की तरह रोम-रोम में प्रवाहित हो सके, जिसका सौरभ सूंघते ही साँसों द्वारा अंदर पैठकर हृदयाकाश में समा जाए। जापान की द्वीपमालिका की तरह जिसकी छोटीछोटी पंक्तियाँ अपने अंतस्तल में सुलगते ज्वालामुखी को दबा न सकने के कारण अनंत श्वासोच्छ्वास के भूकंप में काँपती हों।"
काव्य में बिंब-विधान कल्पना के द्वारा होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बिंब के लिए जिस 'विशेष' की बात कही है, वह भी मूलतः कल्पनाप्रसूत ही है। केदारनाथ सिंह के शब्दों में - "कल्पनावृत्ति के भीतर भी यह विशेषीकरण की प्रवृत्ति काम करती है, जैसे अनुभूतियाँ किसी विशेष वस्तु, दृश्य, अथवा क्षण की बोधक होती हैं।" ___ महाकवि जोइंदु ने काव्य-बिंबों की सृष्टि अप्रस्तुत के साहाय्य से की है। अर्थांतरन्यास और दृष्टांत अलंकारों के द्वारा अभीष्टार्थ की ऐसी प्रस्तुति/संगति है कि प्रस्तुत-अप्रस्तुत का भेद ही समाप्त हो जाता है, यथा -
तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्डइ राउ। दिणयर-किरणहँ पुरउ जिय किं बिलसइ तम-राउ॥
2.76 अर्थात् जैसे दिनकर की किरणों के सम्मुख अंधकार शोभा नहीं पाता, वैसे ही आत्मज्ञान में विषयों की अभिलाषा शोभा नहीं पाती।
भल्लाह वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं। वइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं॥
2.110 अर्थात् जैसे अग्नि लोहे के संसर्ग में पीटी-कूटी जाती है वैसे ही दोषों के संसर्ग से गुण भी मलिन हो जाते हैं। __ अपने सामान्य अर्थों में भाषा वाचिक प्रतीकों की व्यवस्था है, किंतु गूढ तत्वों की अभिव्यक्ति इन सामान्य प्रतीकों से नहीं हो पाती; उन्हें पुनर्प्रतीकीकृत करना पड़ता है। प्रतीक-योजना के प्रमुख साधन उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति तथा सारोपा एवं साध्यवसाना लक्षण हैं । जोइंदु के काव्य में स्वतंत्र प्रतीकों का प्रयोग नहीं हुआ है, क्योंकि इन्हें परमार्थ-संबंधी ज्ञान को सहज, सरल, रोचक ढंग से जनमानस को संप्रेषित करना अभीष्ट था। इस दृष्टि से जोइंदु के प्रतीक अधिकतर रूपकों में व्यक्त हुए हैं, जो न केवल अभिप्रेतार्थ को सहज-गम्य बनाते हैं, अपितु तद्विषयक भावचित्र उपस्थित करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं. यथा -
संसार
वल्ली देवालय
देह
1.32 1.33 1.44
इंद्रिय
ग्राम