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________________ अपभ्रंश-भारती-3-4 इत्थु ण लेवउ पंडियहिँ गुण-दोसु वि पुणरुत्तु । भट्ट-प्रभायर-कारणईं मईं पुण पुण वि पउत्तु ॥ (वही, 211 ) 'परमात्मप्रकाश' में संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव (अपभ्रंश) शब्दों का प्रयोग यथास्थान हुआ है, जिनके साथ देशी शब्दों का आवश्यकतानुसार प्रयोग मिलता है, यथा- 'अवक्खडी' ( चिंता, 1. 115 ), 'चंडइ' (ओरोहति, 2. 46), 'चोप्पडउ' (चिक्कण, 2. 74), 'चेल्लाचेल्ली' (शिष्य - शिष्या, 2. 88 ), इत्यादि । इन देशी शब्दों के प्रयोग से अर्थगत सरलता के साथसाथ प्रभावगत प्रत्यक्षता एवं जीवंतता का बोध होता 1 55 - जब वक्ता या कवि अपने मनोगत भावों को अपेक्षित अभिव्यक्ति प्रदान करता है, तब वह भाषा के सामान्य प्रयोग से हटने लगता है । फलस्वरूप मुहावरों, लोकोक्तियों, कहावतों, बिंबों का प्रयोग जन्म लेता है। जोइंदु के काव्य में यत्र-तत्र मुहावरों का प्रयोग द्रष्टव्य है - 'मं तुस कंडि' (भूसे का खंडन मत कर ) 'छद्दि गिलंति' ( वमन करके उसे निगलते हैं ) 'एक्कहिं केम समति बढ बे खंडा परियारि' (एक म्यान में दो तलवारें कैसे आ सकती हैं) 1.121 'बइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं ' 2. 128 2.91 'मणि जाउ विहाणु' (मन में ज्ञान का प्रभात हो गया) 'म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुहाडि' (अपने कंधे पर आप ही कुल्हाड़ी न चलाए) 2.138 भाषा में (अथच समाज में ) प्राज्ञोक्तियाँ तत्कालीन अथवा पूर्वकालीन परिस्थितियों में उद्भूत वे अनुभवगत निष्कर्ष हैं जिनसे नव-जीवन सदैव अनुप्राणित होता है । इन्हें लोकोक्ति कहा जाता है। कभी-कभी कोई विशिष्ट घटना अर्थ-विशेष को व्यक्त करने का आधार प्रदान करती है, जिसे कहावत के रूप में जाना जाता है। जोइंदु लोककवि थे । अतः उनके काव्य में लोकोक्तियों का प्रयोग अनेकशः मिलता है - 2.98 ( आग लोहे से मिल जाती है, तभी घन से उसे पीटा जाता है ) 2. 110 'सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु' (जिसका सिर दैवयोग से ही मुंडित है, उसे मुंडित नहीं कहा जाता) 2.139 'मूल विणट्ठइ तरु-वरहँ अवसइँ सुक्कहिँ पण्ण' (मूल विनष्ट होने पर उसके पत्ते अवश्य ही सूखते हैं ) 2.140 काव्य में प्रयुक्त भाषा बिंबात्मक होती है जो शब्द और अर्थ दोनों धरातलों पर चरितार्थ होती है। इस संदर्भ में पंत का कथन उल्लेखनीय है " कविता के लिए चित्रभाषा की आवश्यकता पड़ती है। उसके शब्द सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, सेब की तरह जिनकी रसमधुर लालिमा भीतर समा न सकने के कारण बाहर झलक पड़े, जो अपने भाव को अपनी
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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