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________________ 54 अपभ्रंश-भारती-3-4 स्पष्टतया कवि-कौशल का निर्णायक तत्व काव्य की भाषा है। भाषा के कुशल प्रयोग से वह एक शैली-विशेष को जन्म देता है जिसमें प्रभावपूर्ण संप्रेषणीयता स्वयमेव आ जाती है। प्रभावपूर्ण संप्रेषणीयता के लिए काव्यभाषा को बोलचाल की भाषा के निकट होना चाहिए। __ भाषा-प्रयोग की विशेषताओं के वैज्ञानिक अध्ययन की परंपरा भारत में सुदीर्घ रही है जिसे शैलीविज्ञान के नाम से जाना जाता है। पाश्चात्य विद्वान् भी इस मत के पक्षधर हैं कि शैली और स्वस्थ प्रवृत्ति ही नहीं, बल्कि विवेकशीलता भी शब्दों के प्रयोग में सुस्पष्टता से व्यक्त होती है। जहाँ शब्द बहुत अधिक होते हैं, वहाँ विचारों, भावों का प्रस्तुतीकरण शिथिल व निर्जीव होता है। उलझे विचारों को सरल-सटीक भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। ___ जोइंदु की काव्यभाषा का अनुशीलन करने पर विदित होता है कि वह तत्कालीन जनभाषा की उत्कृष्ट प्रतिदर्श रही होगी। यह तथ्य उनकी काव्यभाषा की सरलता, स्पष्टता, देशी शब्दों की प्रयोगबहुलता, लोकोक्तियों-कहावतों-मुहावरों की समाहिति से तो प्रमाणित होता ही है, उनके रचना-उद्देश्य - भट्टप्रभाकर-सदृश सामान्यजन को परमार्थज्ञान सुलभ कराना - से भी अभिप्रमाणित होता है। भाषा में अर्थोत्कर्ष के लिए जोइंदु ने शब्दों के चारु प्रयोग एवं संदर्भगत औचित्य पर विशेष ध्यान दिया है। सरलता, स्पष्टता की रक्षा के लिए कहीं-कहीं अनगढ़ता भी मिलती है, जो कवि-स्वातंत्र्य या विचलन का उदाहरण प्रस्तुत करती है। ___ जोइंदु ने 'परमात्मप्रकाश' की रचना इतनी सुबोध और रोचक शैली में की है कि पाठक को तत्वज्ञान की नीरसता कहीं भी बाधित नहीं करती। अपने कथ्य को सहज रूप से संप्रेषणीय बनाने के लिए ही उन्होंने भाषा-प्रयोगगत विचलनों की ओर ध्यान नहीं दिया है और यही अपेक्षा वे पाठकों से भी करते हैं - लक्खण छंद-विवन्जियउ एह परमप्पयासु। कुणइ सुयावई भावियउ चउगइ-दुक्खविणासु॥ (परमात्मप्रकाश, 210) अर्थात् यह परमात्मप्रकाश काव्य के लक्षणों तथा छंद आदि के नियमों से रहित है। यह सहज भाव से भावित हो कर मानव के चतुर्दिक् दु:खों का विनाश करनेवाला है। ___ शब्द और अर्थ के युक्तायुक्त जल्पित के लिए भी कवि ने ज्ञानियों से क्षमायाचना की है - जं मइँ किं पि विजंपियउ जुत्ताजुत्तु वि इत्थु। तं वर-णाणि खमंतु महु जे बुज्झहिँ परमत्थु॥ . (वही, 212) अर्थात् इसमें जो मैंने युक्त-अयुक्त कहा है, उसे श्रेष्ठ ज्ञानीजन (जो परमार्थ को जानते हैं) (मुझे) क्षमा करें। 'परमात्मप्रकाश' में जोइंदु ने भट्ट प्रभाकर को तत्वज्ञान कराने के लिए पुनरुक्ति का आश्रय लिया है। इस पर कवि का कथन है कि -
SR No.521853
Book TitleApbhramsa Bharti 1993 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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