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अपभ्रंश-भारती-3-4
जनवरी-जुलाई-1993
जोइंदु की भाषा
- डॉ. देवकुमार जैन -डॉ.चित्तरंजनकर
काव्य मूलतः भाषिक व्यापार है, क्योंकि 'विशिष्ट पद-रचना' अथवा 'वैदग्ध्य-भंगीभणिति के द्वारा ही काव्य रस-निष्पत्ति के योग्य होता है। रसात्मक वाक्य' अथवा 'रमणीयार्थप्रतिपादक शब्द' का काव्यत्व इसी आधारभूमि पर संभव है। भारतीय और भारतीयेतर आधुनिक समीक्षकों ने भी यह स्वीकार किया है कि काव्य भाषा का ही एक विशिष्ट रूप है।'
काव्य को भाषा और भाषा को काव्य माननेवाले विद्वानों के मत से भी यह प्रमाणित होता है कि काव्य का मूल तत्व भाषा है। स्टेडमैन ने कविता को 'लयात्मक और कल्पनात्मक भाषा" माना है । वेलेरी ने कविता को 'भाषा की कला कहा है। आगस्ट विल्हेम श्लेगेल के मतानुसार कविता आधुनिक संकेत-भाषाओं के ऊपर मूल भाषा की पुनः सृष्टि है और वह भाषा के उस प्रतीकात्मक विनियोग की ओर लौट आती है जिसमें भाषिक संकेत वस्तु को ठीक-ठीक प्रस्तुत करने में समर्थ होता है।
भाषा को ही काव्य माननेवाले गोकक का मत है कि भाषा स्वतः कविता है। यद्यपि भाषा का प्रत्येक प्रयोग काव्य की श्रेणी में नहीं आता, तथापि वह कॉलरिज के शब्दों में 'द बेस्ट वर्ड्स इन द बेस्ट ऑर्डर' है। निष्कर्षतः भाषा ही कविता का सारतत्व है और कविता भाषा का उत्कृष्ट निदर्शन है।