________________
52
अपभ्रंश-भारती-3
उज्झर-मुरवाई व वायन्ती
रावणेण सरि दिट्ठ वहन्ती। मुय-महुयर-दुक्खेण व जन्ती (?)।. वन्दण-रसेंण व वहल-विलित्ती।जल-रिद्धिऍणं जोव्वणइत्ती। मन्थर-वाहेण व वीसत्थी। जच्च-पट्टवत्थई व णियत्थी। वीणाहोरणई व पंगत्ती। वालाहिय-णिहाएँ व सुत्ती। मल्लिअ-दन्तेहि व विहसन्ती।णीलुप्पल-जयणेहि वणिएन्ती।
महुअरि-महुर-सरु व गायन्ती। उज्झर-मुरवाई व वायन्ती। पत्ता - अरमिय-रामहाँ णिरु णिकामहाँ आरूसेंवि परम-जिणिन्दहों। पुज्ज हरेप्पिणु पाहुडु लेप्पिणु गय णावइ पासु समुदहों।.
-पउमचरिउ 14.10
रावण ने नर्मदा को बहते हुए देखा, जैसे वह मृतमधुकरों से दुःख से (धीरेधीरे) जा रही हो, चन्दन के रस से अत्यन्त पंकिल, जल की ऋद्धि से यौवनवती, मन्द प्रवाह से विश्रब्ध, दिव्य वस्त्रों को धारण करती-सी, वीणा और अहोरण (दुपट्टा) से अपने को छिपाती-सी, व्यालों की नींद से सोती हुई, मल्लिका के समान दाँतों से हँसती हुई, नीलकमल के समान नेत्रों से देखती हुई वकुल (?), सुराकी गन्ध से मतवाली केतकी के हाथों से नाचती हुई, मधुकरी और मधुकर के स्वर से गाती हुई, निर्झर रूपी मृदंगों को बजाती हुई।
घत्ता - स्त्री का रमण नहीं करनेवाला निष्काम परम जिनेन्द्र से रूठकर ही (उनकी) पूजा का अपहरण कर, उपहार लेकर मानो वह समुद्र के पास गयी ।
- अनु. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन