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अपभ्रंश-भारती-3-4
से वह घर आसमान छू रहा था और यह अन्दाज ले रहा था कि उसमें और आसमान में कौन अधिक ऊँचा है।
प्रस्तुत स्थापत्यमूलक वास्तु-वर्णन से स्पष्ट है कि महाकवि स्वयम्भू को मानवीकरण के प्रति सहज मोह है। लंका नगरी में अवस्थित रावण-गृह के चित्रण के ब्याज से पाठकों को सुन्दर मानवीकरण मिलता है; क्योंकि यथाप्रस्तुत इस वास्तु-चित्र में मानवीय व्यापार के अनुकूल ललित अंग-विन्यास का अतिशय रुचिर और रूपकाश्रित आरोप हुआ है। लंका नगरी को फूलमालाओं से सजी विलासिनी नायिका के रूप-व्यापारों से विभूषित कर उपस्थित किया गया है। अपनी ऊँचाई से आसमान के साथ प्रतिस्पर्धा करनेवाले रावण-गृह में मानवोचित प्रतिद्वन्द्विता का निवेश तो भव्यतम बिम्ब-विधान का निदर्शन उपन्यस्त करता है।
महाकवि स्वयम्भू ने प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से अप्रस्तुत के मूर्तिकरण के क्रम में चित्रोपम बिम्बों की अतिशय आवर्जक योजना की है। प्रकृति के उपकरणों को केवल उत्प्रेक्षा या उपमानों की तरह प्रयुक्त करने के क्रम में तो महाकवि ने चाक्षुष बिम्बों के विधान की विलक्षण शक्ति का परिचय दिया है। इस सन्दर्भ में हम किष्किन्ध नगर के अतिशय मनोहर बिम्ब-सौन्दर्य का दर्शन करें -
थोवंतरे धण-कंचण-पउरु। लक्खिज्जइ तं किक्किंधणयरु॥ णं णहयलु तारा-मण्डियउ। णं कव्वु कइद्धय-चड्डियउ॥ णं हणुअ-विहूसिउ मुह-कमलु। विहसिउ सयवत्तु णाई स-णलु॥ णं लिलालंकिय आहरणु। णं कुंद-पसाहिउ विउल-वणु॥ सुग्गीववंतु णं हंस-सिरु। णं झाणु मुणिंदहुँ तणउ थिरु॥ माया-सुग्गीवें मोहियउ। कुसलेण णाँइ कामिणि-हियउ॥
(43.11.1-6) अर्थात्, धन-कंचन से भरपूर किष्किन्धनगर तारों से मण्डित आकाश जैसा या वानर द्वीप के राजा से आक्रान्त शुक्रग्रह जैसा लगता था। वह नगर चिबुक से सुशोभित मुखकमल जैसा था या नाल-सहित कमल के समान विहँसता हुआ प्रतीत होता था। वह नगर नीलमणि से अलंकृत आभरण जैसा या फिर कुन्द पुष्प से प्रसाधित विपुल वन जैसा दिखाई पड़ता था। वह नगर सुन्दर ग्रीवा से युक्त हंस जैसा था या फिर मुनीन्द्रों के स्थिर ध्यान जैसा लगता था। वह मायामय सुग्रीव से उसी प्रकार मोहित हो रहा था, जिस प्रकार कुशल कामी कामिनी के हृदय को रिझा लेता है।
उपर्युक्त चाक्षुष स्थापत्य-बिम्ब में महाकवि ने नगर के शोभाधायक वैशिष्ट्य के वर्णन के क्रम में शब्दाश्रित और भावाश्रित, दोनों प्रकार के बिम्बों का प्रीतिकर विधान किया है। इसमें उत्प्रेक्षा और उपमा के मिश्रित बिम्बों का तो प्राचुर्य है और फिर 'सुग्रीव' शब्द में सभंग श्लेषबिम्ब का विन्यास तो ततोऽधिक आवर्जनकारी है। कहना न होगा कि आचार्य कवि स्वयम्भू को अप्रस्तुत योजना के माध्यम से बिम्ब-सौन्दर्य के मुग्धकारी मूर्तन में पारगामी दक्षता प्राप्त है। अर्थबिम्ब और भावबिम्ब के समानान्तर उद्भावन में महाकवि की द्वितीयता नहीं है।